धर्माधर्मयोः कृत्स्ने…
धर्म अधर्म एक-एक होते हुए भी पूरे लोकाकाश में पूर्ण रूप से व्याप्त हैं, जैसे तिल में तेल।
अन्य द्रव्यों का ऐसा नहीं है इसलिये सूत्र में धर्म अधर्म ही लिये हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र 5/13)
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने जो परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है।
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने जो परिभाषित किया गया है वह पूर्ण सत्य है।
1st line me ‘कृत्स्ने’ ka kya shaabdik arth hai, please ?
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