धर्म
धर्म दर्द देता है,
यदि सुख मिल रहा है तो वह धर्म है ही नहीं,
यही कारण है कि प्राय: लोगों के जीवन में धर्म नहीं आपाता है ।
जैसे अवधिज्ञान से किसी की पीड़ा देखी, उसके दु:ख को पीने का दर्द,
सच बोलने का दर्द,
ब्रह्मचर्य में वासना को पीने का,
अहिंसा/करुणा का,
बैरी को माफ करने का दर्द तो इतना ज्यादा होता है कि उसके स्थान पर हम सालों कचहरी के चक्कर काटना पसंद करते हैं ।
मुनि श्री अविचलसागर जी
One Response
धर्म का तात्पर्य सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान और सम्यग्चारित्र ही होता है,या जीवों को संसार के दुखों से बचाकर मोक्ष सुख में पहुचावें। यह दो प्रकार का है, व्यवहार और निश्चय धर्म। धर्म का दूसरा मतलब है कि अधर्म नहीं करना चाहिए। उपरोक्त कथन सत्य है कि मनुष्य धर्म के स्वरूप को नहीं समझता है।जीवन में धर्म के निश्चय को जानता है लेकिन व्यवहार में नहीं लाता है,इसी के कारण वह सुख दुख के संसार में भ़मण करता रहता है। अतः जीवन में आनंद लेना है तो निश्चय धर्म को व्यवहार में लाना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।