एक मत के अनुसार कर्मों के निधत्ति और निकाचित गुण देवदर्शन से समाप्त हो जाते हैं; दूसरे मत के अनुसार आठवें गुणस्थान में। वस्तुत: यह चौथे से आठवें गुणस्थान तक घटित होने वाले अपकर्षण की सीमाएँ हैं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
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