पुरुषार्थ / कर्मोदय

अनादि से रागद्वेष करते रहने से कर्मों में इतनी क्षमता आ गयी है कि आप रागद्वेष ना करना भी चाहें तो भी (तीव्र) कर्मोदय में रागद्वेष करना पड़ेगा, उससे फिर कर्मबंध होगा।
क्योंकि पुरुषार्थ की एक सीमा होती है जैसे खिचड़ी पकते समय आपको बस देखना होता है, खिचड़ी तो समय पूरा करके ही पकेगी।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

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  1. पुरुषार्थ का मतलब चेष्टा या प़यास करना होता है।कर्म जो मन वचन काय के द्वारा प़तिक्षण कुछ न कुछ करता है यह क़िया या कर्म होता है।यह दो प़कार के होते हैं, द़व्य एवं भाव कर्म।जेसा कर्म करता है,उसका फल अवश्य मिलता है। अतः आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी का कथन सत्य है कि अनादि काल से राग द्वेष करते रहने से उसकी क्षमता बढ जाती है। अतः राग द्वेष को समाप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना आवश्यक है। पुरुषार्थ चार प्रकार है,धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष। अतः धर्म का आश्रय लेकर पुरुषार्थ करना चाहिए ताकि जीवन में मोक्ष भी मिल सकता है।

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