भगवान के मन के भाव-मन नहीं, तो मनो-योग कैसे ?
द्रव्य-मन जो वर्गणायें लेता है, उससे स्पंदन से ही मनो-योग माना जाता है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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मन—नाना प़कार के विकल्प-जाल को कहते हैं, अथवा गुण दोष व विचार का स्मरण आदि करना यह मन का कार्य है।
मन दो प्रकार का है, द़व्य मन और भाव मन। हृदय में आठ पांखुरी वाले कमल के आकार की पुद्लग संरचना रुप द़व्य मन है तथा जिसके द्वारा स्मृति, शिक्षा माप आदि का ग़हन होता है वह भाव मन है।
अतः भगवान् के मन के भाव, मन नहीं तो मनो-योग कैसे ?
द़व्य मन जो वर्णगाये लेता है, उससे स्पंदन से ही मनोयोग माना जाता है।
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मन—नाना प़कार के विकल्प-जाल को कहते हैं, अथवा गुण दोष व विचार का स्मरण आदि करना यह मन का कार्य है।
मन दो प्रकार का है, द़व्य मन और भाव मन। हृदय में आठ पांखुरी वाले कमल के आकार की पुद्लग संरचना रुप द़व्य मन है तथा जिसके द्वारा स्मृति, शिक्षा माप आदि का ग़हन होता है वह भाव मन है।
अतः भगवान् के मन के भाव, मन नहीं तो मनो-योग कैसे ?
द़व्य मन जो वर्णगाये लेता है, उससे स्पंदन से ही मनोयोग माना जाता है।