वैदिक मत में संसार माया है यानि माया बाहर में है, जैन मत में माया हमारे अंदर है ।
इसलिये कहा जाता है कि संसार तो मोह-माया है ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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माया का मतलब छल कपट या कुटिलता करना है ।
मोह यह एक कर्म है जिसके उदय से जीव हित अहित से विवेक रहित होता है। मुनि महाराज जी ने उदाहरण दिया है वह पूर्ण सत्य है कि वैदिक मत में संसार माया है यानी बाहर में है, जबकि जैन मत के अनुसार माया अंदर है, अतः कहा जाता है कि संसार मोह माया है।
अतः मोह से बचना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है ।
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माया का मतलब छल कपट या कुटिलता करना है ।
मोह यह एक कर्म है जिसके उदय से जीव हित अहित से विवेक रहित होता है। मुनि महाराज जी ने उदाहरण दिया है वह पूर्ण सत्य है कि वैदिक मत में संसार माया है यानी बाहर में है, जबकि जैन मत के अनुसार माया अंदर है, अतः कहा जाता है कि संसार मोह माया है।
अतः मोह से बचना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है ।