विरोधी हिंसा में श्रावक को (ज्यादा) दोष इसीलिये नहीं क्योंकि उसके रक्षा के भाव रहते हैं ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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हिंसा- – प़माद के वशीभूत होकर जीव के प्राणों का वियोग करना या उसे पीड़ा पहुंचाना हिंसा है ।
यह हिंसा चार प्रकार की होती हैं,संकल्पी,आरम्भी, विरोधी और उघोगी। द़व्य हिंसा और भाव हिंसा इन दो रुपों में होती हैं। मारना पीटना द़व्य हिंसा है तथा मारने व पीड़ा का विचार करना भाव हिंसा है। अतः यह कथन सत्य है कि विरोधी हिंसा में श्रावक को ज्यादा दोष इसलिए नहीं लगता क्योंकि उसके रक्षा के भाव रहते हैं।
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हिंसा- – प़माद के वशीभूत होकर जीव के प्राणों का वियोग करना या उसे पीड़ा पहुंचाना हिंसा है ।
यह हिंसा चार प्रकार की होती हैं,संकल्पी,आरम्भी, विरोधी और उघोगी। द़व्य हिंसा और भाव हिंसा इन दो रुपों में होती हैं। मारना पीटना द़व्य हिंसा है तथा मारने व पीड़ा का विचार करना भाव हिंसा है। अतः यह कथन सत्य है कि विरोधी हिंसा में श्रावक को ज्यादा दोष इसलिए नहीं लगता क्योंकि उसके रक्षा के भाव रहते हैं।