साता / असाता
एकेन्द्रिय में असाता की बहुलता होती है ।
जैसे जैसे इंद्रियां बढ़ती जाती हैं, साता भी बढ़ती जाती है । बहुतायत मनुष्यों में अधिकतर साता ही रहती है जैसे सोते, खाते, पूजादि के समय ।
मनुष्य से ज्यादा साता बस देव-पर्याय में ही होती है ।
पर हमको असाता ज्यादा लगती है क्योंकि साता में हम और-और पाने के चक्कर में साता को असाता में संक्रमित कर लेते हैं ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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साता का मतलब जिस कर्म के उदय से देवादि गतियों से जीव को इन्द्रिय और मन सम्बन्धी सुख की प्राप्ति होती है।
असाता का मतलब जिस कर्म के उदय से जीव अनेक प्रकार के दुःख वेदन करता है।
अतः उक्त कथन सत्य है कि एकेइन्दिय में असाता की बहुलता होती है। जैसे जैसे इन्द्रियां बढ़ती जाती हैं तो साता भी बढ़ती जाती है, अधिकतर बहुतायत मनुष्यों में रहती हैं, इसके अलावा मनुष्य से ज्यादा देव पर्याय में ही होती है,पर हमको असाता ज्यादा लगती है, क्योंकि साता में और और पाने के चक्कर में असाता में संक्रमित कर लेते हैं। अतः जीवन में साता का स्वाद नहीं लेना चाहिए ताकि असाता से बच सकते हैं।