शीशा देने वाला

जब भी मैं रोया करता,
माँ कहती…
ये लो शीशा,
देख इसमें
कैसी तो लगती है !
रोनी सूरत अपनी,
अनदेखे ही शीशा
मैं सोच-सोचकर
अपनी रोनी सूरत
हँसने लगता ।

एक बार रोई थी माँ भी
नानी के मरने पर
फिर मरते दम तक
माँ को मैंने खुल कर हँसते
कभी नहीं देखा,
माँ के जीवन में शायद
शीशा देने वाला
अब कोई नहीं था ।

सबके जीवन में ऐसे ही
खो जाता होगा
कोई शीशा देने वाला ।

_✍????गुरुवर मुनि श्री क्षमा सागर जी ????

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