Category: वचनामृत-आचार्य श्री विद्यासागर
ईर्ष्या
ईर्ष्या क्यों ? ईर्ष्या तो बड़ों से होती है, मैं छोटा क्यों बनूँ ! आचार्य श्री विद्यासागर जी
संस्कृति और साहित्य
संस्कृति बनाये रखने में समीचीन साहित्य की प्रमुख भूमिका होती है। परन्तु वह साहित्य जीव के लिये उपयोगी होना चाहिये, उसके उपयोग से ही संस्कृति
सम्भाल
गुरु, रेडिओ की तरह Connection कराके शिष्यों को चलने योग्य बना देते हैं। Fine Adjustment तो शिष्यों को खुद ही करना होता है (भावों में
जोड़ना
जुड़ो ना, जोड़ो, जोड़ा छोड़ो, जोड़ो तो बेजोड़ जोड़ो। आचार्य श्री विद्यासागर जी
परिग्रह
हाथ में ज्यादा पत्ते होने से खिसकने की संभावना ज्यादा हो जाती है (उतना ही रखो जितना सम्भाल सकते हो) । आचार्य श्री विद्यासागर जी
निंदक
“निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवायै” सार्वजनिक क्षेत्र में आंगन रामलीला मैदान होता है । आचार्य श्री विद्यासागर जी
भारत
अनुवाद (अनु = Follow + वाद = वचन ) नाम का कभी नहीं होता । दुर्भाग्य – भारत को India करने का क्या Justification था!
सम्बंध
कमल इतना पवित्र/ सुंदर/ सुगंधित होते हुए भी जन्मदात्री कीचड़ से सम्बंध नहीं तोड़ता । हम बड़े होते ही ! (हाँ ! यदि भगवान के
दर्शन
अंतरंग-दर्शन के लिए चिंतन (चेतना है तो चिंतन होना भी चाहिए) । बाह्य-दर्शन के लिए उपनयन (“उप”-पास से, पर साफ दृष्टि होनी चाहिए तभी सही
विज्ञान/वीतराग-विज्ञान
विज्ञान आगे बढ़ना चाहता है/बढ़ता भी है पर संस्कृति को कुचलते हुए । वीतराग-विज्ञान आगे बढ़ाता है संस्कृति को संरक्षण देते हुए । आचार्य श्री
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