Category: वचनामृत-आचार्य श्री विद्यासागर
दूसरों की चिंता
जिनका स्वाध्याय/धर्म में मन लगता है, उनकी चिंता नहीं/चिंता करने की ज़रूरत भी नहीं । जिनका मन नहीं लगता, उनकी चिंता करने से लाभ नहीं
मातृभाषा
संस्कार मातृभाषा में क्यों ? माँ से जो सीखा, उस भाषा को हेय दृष्टि से देखने लगे, तो माँ को भी उसी दृष्टि से देखने
प्रभु-कृपा
प्रभु के दरबार में कहते हो झोली भर दो, जबकि कहना चाहिये – झोली छुड़ा दो । आचार्य श्री विद्यासागर जी
जरा / अजर / नजर
जरा* न चाहूँ, अजर** बनूँ, नजर*** चाहूँ । आचार्य श्री विद्यासागर जी * रोग/थोड़ा भी ** निरोगी *** गुरुकी/सम्यग्दृष्टि
कर्मफल
समय से पहले फल चखने का भाव न करें । क्योंकि अधपका फल स्वादिष्ट नहीं, स्वास्थ्यवर्धक भी नहीं तथा उसमें हिंसा (जीवराशि) ज्यादा । ताप
सावधानी
वक़्त-वक़्त पर* उन्हें न भूलें… 1) जिनसे बचना है 2) जिनसे संरक्षण होता है 3) जो हमारी प्रगति में बाधक हैं * वक़्त-वक़्त पर –
दौड़-धूप
दौड़-धूप, यानि धूप में दौड़ना । धूप होती है सीमेंट के जंगलों में । गांवों में सुकून है, वहाँ किसान संग्रह के पीछे नहीं भागता,
गुरु शिष्य की दूरी
भले ही दूर, निकट भेज देता, अपनापन । आचार्य श्री विद्यासागर जी
काया
काया का कायल नहीं, काया में हूँ आज । कैसे काया-कल्प हो, ऐसा हो कुछ काज ।। आचार्य श्री विद्यासागर जी (हम तो आज चाय
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