अनुजीवी गुण, जो सदैव आत्मा के साथ रहते हैं, पूर्ण या ढ़के हुये जैसे ज्ञानावरणादि ।
मुनि श्री सुधासागर जी
(“अनु” यानि छोटा, वह तो (जीव) बड़े का अनुसरण करेगा ही न !
जैसे धर्म बिना धर्मात्मा नहीं वैसे ही गुणों बिना जीव बड़ा/ शुद्ध नहीं – चिंतन)
चिंतन
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अनुजीवी गुण का तात्पर्य द़व्य में विराजमान भाव रुप गुणों को कहते हैं,जीव में विद्यमान ज्ञान, दर्शन, चेतना आदि गुण और पुदगल के स्पर्श,रस, रुप आदि गुण हैं।
अतः मुनि महाराज ने जो परिभाषा अनुजीवी गुणों की दी गई है,वह पूर्ण सत्य है जैसे छोटा जीव, बड़े जीव का अनुसरण तो करेगा ही। धर्म बिना धर्मात्मा नहीं,वैसे ही गुणों के बिना जीव बड़ा या शुद्ध नहीं हो सकता है।
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अनुजीवी गुण का तात्पर्य द़व्य में विराजमान भाव रुप गुणों को कहते हैं,जीव में विद्यमान ज्ञान, दर्शन, चेतना आदि गुण और पुदगल के स्पर्श,रस, रुप आदि गुण हैं।
अतः मुनि महाराज ने जो परिभाषा अनुजीवी गुणों की दी गई है,वह पूर्ण सत्य है जैसे छोटा जीव, बड़े जीव का अनुसरण तो करेगा ही। धर्म बिना धर्मात्मा नहीं,वैसे ही गुणों के बिना जीव बड़ा या शुद्ध नहीं हो सकता है।