आहारक क्यों कहा ?
आहार में ग्रहण (भोजन का), आहारक में ज्ञान का ग्रहण (शंका समाधान करके)।
संदेह होते हुए भी निशंकित अंग कैसे बना रहता है ?
क्योंकि विपरीत श्रद्धा नहीं है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (जीवकाण्ड- गाथा 239)
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने आहारक की परिभाषा बताई गई है वह पूर्ण सत्य है। आहारक का उपयोग सिर्फ मुनियों द्वारा ही हो पाता है। अतः श्रावक को भी आहारक के लिए आदत बनाना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।
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मुनि श्री प़णम्यसागर महाराज जी ने आहारक की परिभाषा बताई गई है वह पूर्ण सत्य है। आहारक का उपयोग सिर्फ मुनियों द्वारा ही हो पाता है। अतः श्रावक को भी आहारक के लिए आदत बनाना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।