उत्तम आकिंचन्य
• आकिंचन्य = किंचित भी मेरा नहीं ।
• पूर्ण त्याग के बाद जो बचा, वह आकिंचन्य ।
• बाज़ार में एक से बढ़कर एक दुकान पर आकिंचन्यी दूर से दूर ।
• आकाश और पृथ्वी पर सब क्रियायें होती रहती हैं पर वे अप्रभावित,
गहरी/शांत नदी और अहिमेंद्रों जैसे ।
• आकिंचन्य से आत्मा कंचन बन जाती है ।
आचार्य श्री विद्या सागर जी
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जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित/ हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाईयों को पाने के लिए एकदम खाली होना आवश्यक है। अतः उत्तम आकिंचन्य में मेरा कुछ भी नहीं है, यदि है तो शुद्ध आत्मा है, इसके अलावा जो कुछ भी है वह सब पर है। अतः उपरोक्त भाव होने पर ही आकिंचंन मार्ग होता है। वास्तव में उत्तम आकिंचन धर्म के धारी मुनि ही होते हैं। परिग़ह में आस्था दुःख का कारण होता है इसलिए श्रावकों को परिग़ह त्याग की प्रेरणा दी गई है।