नय
उमास्वामी आचार्यादि ने शास्त्र नय से नहीं, नयों की अपेक्षा लिखे हैं ।
व्यवहार नय भोजन बनाना, निश्चय उसे खाना ।
दोनों नयों का उपदेश दोनों (श्रावक व मुनि) के लिये ।
मुनि श्री सुधासागर जी
उमास्वामी आचार्यादि ने शास्त्र नय से नहीं, नयों की अपेक्षा लिखे हैं ।
व्यवहार नय भोजन बनाना, निश्चय उसे खाना ।
दोनों नयों का उपदेश दोनों (श्रावक व मुनि) के लिये ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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वस्तु के अनेक धर्मो के किसी एक धर्म को सापेक्ष रुप है कथन करने की पद्दति को नय कहते हैं।
अथवा ज्ञाता और वक्ता के अभिप़ाय को नय कहते हैं।
वास्तव में अनन्त धर्मात्मक होने के कारण वस्तु अत्यन्त जटिल है,उसे जाना जा सकता है परन्तु आसानी से कहा नहीं जा सकता है, वस्तु का विश्लेषण करने के सिवाय अन्य कोई उपाय नही है, ऐसी स्थिति में वक्ता वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके और शेष धर्मो को गौण करके सापेक्ष रुप से कथन करता है और इस तरह वस्तु को पूर्णता से जानना आसन हो सकता है यह नय का कार्य है।
आचार्यों ने शास्त्र नय से नही, नयों की अपेक्षा से लिखे हैं।नयों के उपदेश श्रावक और मुनि दोनों के लिए ही होते हैं।