पहले विनयशील बनाया, फिर अशुचि/अशरण भावना भाने को कहा।
मोक्ष भावना नहीं तत्त्व है (भावों में आ भी नहीं सकता है)।
संसार-भावना दी, यह अनुभव में आ सकती है।
भावनायें वर्तमान और भविष्य की होती हैं, भूत की नहीं।
मुनि श्री सुधासागर जी
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धर्म का तात्पर्य सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है या जीवों को संसार के दुखों से बचाकर मोक्ष सुख में पहुंचाता है। भाव का तात्पर्य जीव के परिणाम होते हैं,यह शुभ अथवा अशुभ भाव होते हैं। अतः मुनि महाराज जी का कथन सत्य है कि पहिले विनय शील बनाया फिर अशुचि एवं आशरण भावना भाने को कहा गया है। अतः जीवन में संसार से मुक्ति के लिए बारह भावनाओं को हृदय में स्थापित करने से ही जीवन का कल्याण होगा।
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धर्म का तात्पर्य सम्यग्दर्शन सम्यक्ज्ञान और सम्यग्चारित्र है या जीवों को संसार के दुखों से बचाकर मोक्ष सुख में पहुंचाता है। भाव का तात्पर्य जीव के परिणाम होते हैं,यह शुभ अथवा अशुभ भाव होते हैं। अतः मुनि महाराज जी का कथन सत्य है कि पहिले विनय शील बनाया फिर अशुचि एवं आशरण भावना भाने को कहा गया है। अतः जीवन में संसार से मुक्ति के लिए बारह भावनाओं को हृदय में स्थापित करने से ही जीवन का कल्याण होगा।