वक्त

इसी से जान गया मैं कि बख़्त ढलने लगे।
मैं थक के छाँव में बैठा तो पेड़ चलने लगे।

फ़रहत अब्बास शाह

अपने हाथों की लकीरें न बदल पाये कभी, ख़ुशनसीबों से बहुत हाथ मिलाये हमने।

ये कयाम कैसा है राह में
तेरे ज़ौक़-ए-इश्क़ को क्या हुआ;
अभी चार काँटे चुभे नहीं
कि तेरे सब इरादे बदल गए।।

ज़ौक़-ए-इश्क़ : लगाव की ख़ुशी (ब्र. डॉ. नीलेश भैया)

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