वैभव

तजुर्बा है मेरा…
मिट्टी की पकड़ मजबूत होती है,
संगमरमर पर तो पैर फिसलते देखा है मैंने ।

(नितिन)

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2 Responses

  1. राष्ट्रीय आन्दोलन के पहले जननायक लोकमान्य तिलक की 1अगस्त को उनकी पिच्यान्वेवीं पुण्यतिथि पर ‘होम रूल’ की मांग को लेकर बृजनारायण चकबस्त की एक नज़्म –
    ‘पिन्हाने वाले अगर बेड़ियाँ पिन्हायेंगे,
    खुशी से क़ैद के, गोशे को हम सजायेंगे.
    जो संतरी दरे ज़िन्दां के, सो भी जायेंगे,
    ये राग गा के, उन्हें ख्वाब से जगायेंगे.
    तलब फ़िज़ूल है, काँटों की, फूल के बदले,
    न लें बहिश्त भी, हम, होम रूल के बदले.’
    (अगर हमको कोई बेड़ियाँ भी पहना कर जेल में भी डाल दे तो हम खुशी-खुशी जेल के एक कोने की शोभा बढ़ाएंगे. अगर जेल के प्रहरी सो कर कोई सपना देख रहे गए होंगे तो हम यह राग गाकर उनका सपना तोड़कर, उन्हें उनकी नींद से जगा देंगे – फूल के बदले में काँटों की मांग करना व्यर्थ है. हम होम रूल के बदले में तो स्वर्ग भी नहीं लेंगे.)

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