जैसे पाप बाहर से तथा भीतर से भी होता है, ऐसे ही सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती भी द्रव्यलिंगी तथा भावलिंगी होते हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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द़व्य गुण और पर्याय समूह को कहते हैं,यह छै द़व्य होते हैं,
भाव लिंगी का मतलब शरीर का ब़ाह्य वेष द़व्य लिंग होता है तथा अंतरंग में वीतरागता रूप भाव लिंग होता है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि जैसे पाप बाहर और भीतर भी होता है, ऐसे ही सम्यगद्वष्टि तथा अणुव्रती भी द़व्य तथा भाव लिंगी होते हैं। जीवन का कल्याण तो भाव लिंगी में ही सम्भव होगा।
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द़व्य गुण और पर्याय समूह को कहते हैं,यह छै द़व्य होते हैं,
भाव लिंगी का मतलब शरीर का ब़ाह्य वेष द़व्य लिंग होता है तथा अंतरंग में वीतरागता रूप भाव लिंग होता है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि जैसे पाप बाहर और भीतर भी होता है, ऐसे ही सम्यगद्वष्टि तथा अणुव्रती भी द़व्य तथा भाव लिंगी होते हैं। जीवन का कल्याण तो भाव लिंगी में ही सम्भव होगा।