निश्चय नय
वस्तु के प्रति पवित्रता का भाव निश्चय-नय से आता है। आज जो चींटी है कल को भगवान बनने की क्षमता रखती है, आज में कल दिखने लगता है।
तिल में तेल की तरह देह में भगवान कहा, जीव/आत्मा नहीं कहा।
ये भावना पुरुषार्थी बनाती है जैसे कुंए में सोने का पता लगने पर पुरुषार्थ करने का मन होता है।
मुनि श्री सुधासागर जी
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धर्म के दो भेद होते हैं निश्चय एवं व्यवहार धर्म।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि पवित्रता के भाव निश्चय नय से ही आते हैं। भगवान् बनने के लिए व्यवहार धर्म यानी पुरुषार्थ करना परम आवश्यक है।