पुण्यात्मा / पापी
दोनों के भाव एक से होते हैं –
पुण्यात्मा = भगवान के दर्शन में नित नया आनंद ।
पापी = भोगों में नित नया आनंद ।
दोनों अगले जन्म में भी यही पाने के भाव रखते हैं ।
दोनों सोचते हैं इस जन्म में देरी से शुरू किया अगले जन्म में समय खराब नहीं करुंगा ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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पुण्यात्मा का मतलब जो अपनी आत्मा का हित सोचता है, जिससे आत्मा पवित्र होती है। जबकि पापी वही होता है,जो अपनी आत्मा का अहित करता है।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि दोनों के भाव एक से होते हैं, लेकिन पुण्यात्मा भगवान् के दर्शन मिलने पर उसको आनन्द आता है, जबकि पापी को भोगों में आनन्द आता है।
दोनों सोचते हैं कि इस जन्म में देरी से शुरू किया कि अगले जन्म में समय खराब नहीं करुंगा।
अतः जीवन में शुरू से ही अपनी आत्मा का हित का सोचना परम आवश्यक है ताकि जीवन का पुण्य मिल सकता है।