योग / भोग

मित्र/शत्रु, सुख/दुख, प्रशंसा/निन्दा, सोना/मिट्टी, जीवन/मरण में से…
भोगी… मित्र, सुखादि को ग्रहण करना चाहता है, क्योंकि जन्मजन्मांतरों के संस्कार हैं, इसलिये बिना प्रयास के भोगता जाता है ।
योगी… प्रयत्नपूर्वक, दोनों को समताभाव से ग्रहण करता है ।
योग से ही भोग के संस्कार टूटते हैं ।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी : प्रवचनसार गाथा – 275

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One Response

  1. उपरोक्त कथन सत्य है कि भोगी, मित्र/सुखादि को ग़हण करना चाहता है, क्योंकि इसमें जन्म-जन्मांतरों के संस्कार होते हैं, इसलिए बिना प़यास के भोगता जाता है, जबकि योगी प़यत्न पूर्वक, दोनों को समता भाव में ग़हण करता है। योग से भोग के संस्कार टूटते हैं। अतः जीवन में भोग की इच्छा को छोड़ना परम आवश्यक है, उसको मिटाने के लिए योग का आश्रय लेना आवश्यक है ताकि जीवन का कल्याण हो सकता है।

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