श्रमण / श्रावक
श्रमण भोगों को निष्परिग्रह-भाव से ग्रहण करते हैं, श्रावक परिग्रह-भाव से,
श्रमण को बढ़िया आहार भी रसना इंद्रिय को नियंत्रण करने का अभ्यास कराता है, श्रावक को अच्छा आहार हो या बुरा, सब रसना इंद्रिय को निमंत्रण का अभ्यास कराते हैं ।
मुनि श्री महासागर जी
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परिग़ह का मतलब यह मेरा है और इसका स्वामी हूं, यह ममत्व भाव होता है। अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि श्रावक परिग़ह भाव में रहता है लेकिन श्रमण भोगों को निष्परिग़ह भाव से ग़हण करते हैं।
श्रमण को बढ़िया आहार भी रसना इन्द्रियों को नियंत्रण करने का अभ्यास करता है लेकिन श्रावक रसना इन्द्रियों पर नियन्त्रण नहीं करता है।
“निष्परिग्रह-भाव” ka kya meaning hai,please?
परिग्रह = मूर्छा।
ठंडी हवा का स्पर्श आदि से मूर्छा नहीं रखना।
Okay.