“मोही श्रमण से निर्मोही श्रावक अच्छा” इसलिये नहीं कहा कि ऐसा श्रावक मोक्षमार्गी हो गया बल्कि श्रमण को कहा कि तुम भी मोक्षमार्गी नहीं रहे ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
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मोहनीय कर्म का मतलब जिस कर्म के उदय से जीव हित अहित के विवेक से रहित रहना है।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि मोही श्रमण से निर्मोही श्रावक अच्छा होता है। ये इसलिए नहीं कहा गया है कि ऐसा श्रावक मोक्षमार्गी हो गया बल्कि श्रमण को कहा गया वह मोक्षमार्गी नहीं रह सकते हैं।
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मोहनीय कर्म का मतलब जिस कर्म के उदय से जीव हित अहित के विवेक से रहित रहना है।
अतः उपरोक्त कथन सत्य है कि मोही श्रमण से निर्मोही श्रावक अच्छा होता है। ये इसलिए नहीं कहा गया है कि ऐसा श्रावक मोक्षमार्गी हो गया बल्कि श्रमण को कहा गया वह मोक्षमार्गी नहीं रह सकते हैं।