Tag: मुनि श्री प्रमाणसागर जी
अहिंसा
दो प्रकार – 1. नकारात्मक – किसी को ना मारना/सताना 2. सकारात्मक – दूसरों की सेवा/रक्षा करना मुनि श्री प्रमाणसागर जी
पुरुषार्थ
सच्चा पुरुषार्थ पुण्य कमाना नहीं, पुण्यवान बनने में है; और ऐसा करने वाला पुण्यजीव होता है, यह सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है । मिथ्यादृष्टि जीव
ऋद्धि
ऋद्धिधारी मुनियों में श्राप देने की शक्ति भी आ जाती है, पर 6 गुणस्थानवर्ती में दयाभाव इतना हो जाता है कि वे श्राप दे ही
श्रमण / श्रावक
श्रावकों के 8 मूलगुण काल के साथ परिवर्तित होते रहे हैं, पर श्रमण के 28 मूलगुण चौथे काल से पंचमकाल के अंत तक Same हैं
विरक्ति / संयम
विरक्ति – पापों से बचना, संयम – प्रवृति में सावधानी । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
साधना / तप / ध्यान
साधना – मन को साधना, तप – इच्छा निरोध, ध्यान – एक विषय पर एकाग्रता । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
धर्म में धन
धन, धर्म-प्रभावना में आवश्यक, धर्म-साधना में बाधक । मुनि श्री प्रमाणसागर जी
शोभायात्रा
विधानादि के बाद शोभा-यात्रा इसका प्रतीक है कि इतने दिनों हम सब धर्म-मार्ग पर चले, अब उस धर्म-प्रभावना को Cultivate कर रहे हैं तथा संकल्प
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