किसी भी कर्म के अनुभाग, प्रकृति, प्रदेश तथा स्थिति की उदीरणा साथ साथ होती है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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उदीरणा का तात्पर्य अपक्व अर्थात नहीं पके हुए कर्मों को समय से पहले पकाने को कहते हैं। दीर्घकाल बाद उदय में आने वाले योग्य कर्म को अपकर्षण करके उदय में लाकर उसका अनुभव कर लेना ही उदीरणा है।
उपरोक्त कथन सत्य है कि किसी कर्म के अनुभाग,प़कृति,प़देश तथा स्थिति की उदीरणा साथ साथ होती है।
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उदीरणा का तात्पर्य अपक्व अर्थात नहीं पके हुए कर्मों को समय से पहले पकाने को कहते हैं। दीर्घकाल बाद उदय में आने वाले योग्य कर्म को अपकर्षण करके उदय में लाकर उसका अनुभव कर लेना ही उदीरणा है।
उपरोक्त कथन सत्य है कि किसी कर्म के अनुभाग,प़कृति,प़देश तथा स्थिति की उदीरणा साथ साथ होती है।