पूजा
पूजा 3 प्रकार की (हर दर्शन में)…
1) आराध्य की…संकल्प सहित, अर्घ स्वाहा करके आराध्य के गुणों को लेन के भाव से ।
2) विशिष्ट अतिथि की…संकल्प/अर्घ/लेने के भाव बिना, सिर्फ देना ।
3) सांसारिक वस्तुओं की …मंगल/ शुभ भाव से, न लेना न देना।
● भरत चक्रवर्ती ने भगवान (समवसरण में) की पूजा करके, बचे तंदुलों को चक्र पर क्षेपण करके तीसरी प्रकार की पूजा की थी ।
मुनि श्री सुधा सागर जी
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पूजा—पंच परमेष्ठि के गुणों का चिंतवन करना पूजा कहलाती है। पूजा के छह भेद है।
यह कथन सत्य है कि आराध्य की पूजा संकल्प सहित,अर्घ स्वाहा करके आराध्य के गुणों के लेने के भाव से होती है जिसके कारण कर्मों की निर्जरा होती है और पुण्य की प्राप्ति होती है।
2 विशिष्ट अतिथि की पूजा में संकल्प,अर्घ और लेने के बिना इसमें सिर्फ देना होता हैं।
3 सांसारिक वस्तुओं की मंगल और शुभ भाव से जिसमें न लेना न देना होता हैं। भरत चक्रवर्ती ने भगवान् की समवसरण में पूजा करके,बचे तंदुलों को चक़ पर क्षेपण करके तीसरी तरह की पूजा की थी