औदायिक भाव – जो भाग्य में होगा मिलेगा;
प्राय: निंदनीय (तीर्थंकर प्रकृति आदि को छोड़कर) ।
उपशम, क्षायिक, क्षयोपशमिक – पुरुषार्थवाद, कर्मों की नियत धारा में नहीं बहना ।
मुनि श्री सुधासागर जी
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4 Responses
जैन धर्म में भावों का महत्वपूर्ण स्थान है।भाव का तात्पर्य जीव के परिणाम को कहते हैं।औपशमिक, क्षायिक,मिश्र औददायिक और परिणमन।यह पांच होते हैं।जीवदि का विशेष ज्ञान किया जाता है यह भाव अनुयोग होता है। अतः मुनि सुधासागर महाराज जी का कथन पूर्ण सत्य है।
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जैन धर्म में भावों का महत्वपूर्ण स्थान है।भाव का तात्पर्य जीव के परिणाम को कहते हैं।औपशमिक, क्षायिक,मिश्र औददायिक और परिणमन।यह पांच होते हैं।जीवदि का विशेष ज्ञान किया जाता है यह भाव अनुयोग होता है। अतः मुनि सुधासागर महाराज जी का कथन पूर्ण सत्य है।
What about “Paarinaamik bhaav”?
यहाँ पर भाग्य और पुरुषार्थ की तुलना की गयी है।
पारिणामिक भाग्य में नहीं आयेगा क्योंकि कर्माश्रित नहीं, पुरुषार्थ का भी role नहीं।
Okay.