Category: वचनामृत-आचार्य श्री विद्यासागर

दया

“पर” के ऊपर की गयी दया से स्वयं की याद आती है (आत्मा की, उसके दया स्वभाव की)। जैसे चंद्र पर दृष्टि डालने से, नभ

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आत्मा

आत्मा समझ में नहीं आता तो अनात्मा को समझ लो। “पर” को भूलने की कला सीख ली तो स्व (आत्मतत्त्व) प्राप्त हो जायेगा। आचार्य श्री

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धन से सम्बंध

धन से सम्बंध उतना ही रखो जैसे दीपक जलाते समय माचिस और तीली का होता है। तीली के ज्यादा पास आये तो जल जाओगे, तब

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निश्चित

जो निश्चित है, उस पर विश्वास न होने से संकल्प/विकल्प रूप मानसिक दु:ख होता है। निश्चित को मानने से संतोष आ जाता है जैसे मृत्यु

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संस्कार

आत्मा की बात सुनने के लिये संस्कार आवश्यक होते हैं। जैसे इंजेक्शन लगाने के लिये स्प्रिट। आचार्य श्री विद्यासागर जी

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धर्म-प्रभावना

धर्म प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न, प्रभावना है। भावना अच्छी हो तभी प्रभावना होती है। व्रतों तथा सादगी का प्रभाव प्रभावना पर अवश्य पड़ता है।

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प्रमादी

प्रमादी का भाग्य कभी नहीं फलता। भाग्य भरोसे बैठने वालों को वही वस्तुयें मिलती हैं, जो पुरुषार्थी छोड़ जाते हैं। आचार्य श्री विद्यासागर जी

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बुद्धि / विवेक

दुनिया का ज्ञान प्राप्त हो गया पर दुनिया से दूर रहने की कला नहीं आयी, तो बुद्धि किस काम की ! बुद्धि कच्चा माल है,

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आचरण

आचरण के बिना “साक्षर” बने रहने में (इसके विपरीत) “राक्षस” बन जाने का ख़तरा भी रहता है। आचार्य श्री विद्यासागर जी

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पथ्य / औषधि

यदि पथ्य का पालन हो तो औषधि की आवश्यकता नहीं, यदि पथ्य का पालन ना हो तो औषधि का प्रयोजन नहीं। आचार्य श्री विद्यासागर जी

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मंगल आशीष

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