प्रण कब तक निभायें ?
प्रण निभाने में व्यक्तिगत लाभ होता है,
लेकिन वह प्रण जब समाज/देश/धर्म के लिये अहितकारी हो जाय तो तोड़ लेना चाहिये जैसे श्री कृष्ण करते थे ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
(Aruna)
समस्यायें रुकावट नहीं, मार्गदर्शक होती हैं कि आप सही दिशा में जा रहे हो !
गर्त में जाते/गिरते समय कोई रुकावट नहीं मिलती ।
हम गोबर से भी यही Expect करते हैं कि वह हमारे पैरों में न आये/ पैरों में न लगे,
मैं तो…अपना पैर नहीं बचाऊंगा ।
(एकता-पुणे)
जहाँ दर्द ज्यादा, हमदर्द कम हों – उसे संसार कहते हैं ।
सब विनयों में, उपचार-विनय (शिष्टाचार में) Practical है ।
इसमें 100% नम्बर सहजता से ला सकते हैं ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
स्मरण तथा पुण्यार्जन के लिये भुला-भुला कर पढ़ना चाहिये ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
विज्ञानानुसार मूड, भावनायें, स्मृतियाँ मन से होती हैं,
धर्मानुसार इनका बदलना/नियंत्रण करना हमारे हाथ में है ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
विनय यानि सामने वाले के अनुकूल प्रवृत्ति करना ।
ख़ुद से पूछें…
क्या हम बड़ों/ गुरु/ शास्त्र और भगवान की विनय करते हैं ?
मुनि श्री अविचलसागर जी
(Rajat Singh Jain)
“पूज्य” बनो, या “पूजक”,
तीसरा कुछ नहीं, तीसरा तो बस “तीये” की बैठक होगी ।
मुनि श्री सुधासागर जी
ज्ञान पढ़ा/बोला जाता है, Theory है;
विज्ञान ज्ञान के साथ साथ किया/देखा जाता है, Practical भी है ।
चिंतन
जैसे सकलपारा चासनी में “पग” जाता है/चासनी उसके कण कण में समा जाती है, ऐसे ही हम अपने हठाग्रह/भौतिकता से “पग” गये हैं ।
अति के पगने पर पागल हो जाते हैं,
इसी से उन्हें पग+लिया कहना भाव-संगत लगता है ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
संयोग बहुतेरे, संयोगी भाव न कर;
संयोगी भाव करै तो, संयोगों का दोष नहीं ।
श्री लालमणी भाई
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