सबसे पहला और सरल संयम है – “नज़र पर नज़र रखना”

मुनि श्री अविचलसागर जी

आयु कट रही है जैसे कैंची कपड़े काटती है,
कर्म बढ़ रहे हैं जैसे अलमारी में कपड़े,
क्या करें ?

कैंची तो अपना कर्तव्य करती ही रहेगी,
तुम्हारा कर्तव्य है – आयु बढ़ने के साथ साथ कपड़ों को कम करते चले जाना ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

साधुजन अपनी रक्षा खुद नहीं करते ! चाहे उनके पास कितनी भी मंत्रादि शक्तियाँ हों ।
क्योंकि उसमें दुशमन की हिंसा का दोष लगेगा/ उत्तम-अहिंसा व्रत का पालन नहीं हो पायेगा ।
इनकी रक्षा का दायित्व, श्रावकों पर होता है ।

मुनि श्री सुधासागर जी

भगवान की “जय हो” के नारे क्यों लगाये जाते हैं ?
वे तो सब पर विजय प्राप्त कर चुके हैं !

“जय हो” नारा नहीं, जयघोष है…
भगवान जयवंत रहें, धर्म की प्रभावना हो/ धर्म बढ़े ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

ऊपरी बाधा प्राय: गाँवों/गरीबों में देखी जाती है, जेलों में एक भी केस नहीं सुना ।
क्योंकि इसका संबंध अंधविश्वास/ मनोविज्ञान/ अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये देखा जाता है ।

मुनि श्री सुधासागर जी

भगवान को कभी देखा नहीं फिर भी वे दु:ख में क्यों याद आते हैं ?

जिससे जितना पुराना और नज़दीकी रिश्ता होता है, वह उतना  ही ज्यादा याद आता है ।
भगवान से हमारा जन्म-जन्मांतरों का रिश्ता है/ वे हमारे रग-रग में बसे हैं/ मैं खुद भगवन-आत्मा बन सकता  हूँँ  ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

दीन/हीन की सेवा के बदले में कुछ पाने की भावना नहीं  रहती है,
पर पूजादि के बदले में कुछ पाने की भावना प्राय: रहती है ।

मुनि श्री निर्मोहसागर जी

भारत में वह है जो विश्व में कहीं नहीं ।
बाहर की भौतिकता को देखकर आँखें खुली रह जाती हैं,
भारत में आकर आँखें बंद हो जाती हैं (भक्ति में, वीतरागी की अर्धमुदी आँखों को देखकर )

आचार्य श्री विद्यासागर जी

धर्मकार्यों के खर्चे में से कटौती से गरीबों को दान करते हो तो दोनों को दोष,
अपने भोग-विलास/पाप क्रियाओं के खर्चे से गरीब को दान देने में तुमको भी पुण्य/गरीबों को भी ।

मुनि श्री सुधासागर जी

सांसारिकता में गुणा-भाग, पारिमार्थिकता में गुणात्मक प्रगति,
सांसारिकता में त्रिकोण/षटकोण, पारिमार्थिकता में दृष्टिकोण विषय रहता है ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

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