इच्छा निरोधः तपः

तप…
1) क्या ?.. विषयों का निरोध । आ.श्री ..अपेक्षा निरोधः तपः ।
2) क्यों ?..आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए, भौतिक gains के लिए नहीं ।
3) कैसा ?..बाह्य – उपवास, भूख से कम खाना, रस त्याग आदि
अंतरंग – प्रायश्चित, विनय,स्वाध्याय, ध्यान आदि ।
4) कब ?..हर समय; जब जागो तभी सवेरा ।

तपस्वी बनो ताकि मनस्वी और तेजस्वी बन सको ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

संयम = सही यतन/ आत्मनियंत्रण

संयम के लिए …
1) निषेध – मन को निषेध-आज्ञा देने पर, वह पापों की ओर नहीं भागता है ।
2) नियम – Selfcommitments/ Rules निभाने से जीवन में स्थिरता/ व्यवस्था/ आनंद और शक्ति आती है ।
3) नियंत्रण – नियम के बावज़ूद भी यदि मन पापों की ओर भागे तो आत्मनियंत्रण करें ।
4) शुद्धि – अंतरंग संयम से ही जीवन में शुद्धि व सिद्धि प्राप्त होती है ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

अप्रिय/ अहितकर सत्य भी असत्य है,
प्रिय/ हितकर असत्य भी सत्य है ।

1) सत्य को जानें – जो भी दिख रहा है वह सब असत्य है,
यथार्थ-दृष्टि/ परमतत्व आत्मा ही सत्य है ।
2) सत्य को भजें – सत्य की पूजा नहीं, असत्य से आसक्ति छोड़ें ।
3) सत्य जियें – सत्याचरणी बनें यानि मन,वचन और व्यवहार में सत्य उतारें ।
4) सत्य पायें – सत्य को जानकर, भजकर तथा जी कर ही; सत्य को पाया जा सकता है ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

शौच = पवित्रता / लोभ का उल्टा

शौचता आती है संतोष से ।
संतोष व असंतोष में फ़र्क सिर्फ “अ” का,
“अ” = अभावोमुखी-दृष्टि ।
असंतोष के कारण …
1) अभावोमुखी-दृष्टि – जो पाता है सो भाता नहीं,जो भाता है सो पाता नहीं,इसलिए साता आती नहीं – आचार्य श्री विद्या सागर जी ।
2) यथार्थ की अनदेखी – अपनी योग्यता/ गुणों को न पहचानना ।
3) जीवन जीने का अस्वाभाविक तरीका – हैसियत से ज्यादा की इच्छा ।
4) लालसा की बहुलता – धन/ वैभव की हाय-हाय ।

सुख/ संतोष के लिए …
1) प्राप्त को पर्याप्त मानो
2) सकारात्मक-दृष्टि रक्खो
3) यथार्थ की सहज स्वीकृति
4) संयम पालन

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

आर्जव धर्म = मायाचारी का न होना ।

4 के साथ तो छल कभी भी न करें …
1) स्वयं से – हर छल में हम अपने को तो छलते ही हैं ।
2) स्वजनों से – क्या अपना Mobile बिना Lock किये अपनों को दे सकते हो ?
3) कल्याण-मित्र से – ..देते हैं भगवान को धोखा, इंसा को क्या छोड़ेंगे..!
4) धर्म क्षेत्र में – धर्म को इस्तेमाल किया तो भव-अवांतर रसातल में ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

अहंकार का न होना ही मार्दव धर्म है ।

अहंकार रूपी पर्वत से जब नदी नीचे उतरती है तभी शांति के सागर में मिलकर विराट रूप धारण कर पाती है।

अहंकार …
क्या ?…. मैं कुछ हूँ, बड़ा या छोटा ।
जन्मता ?…अज्ञान से ।
पुष्ट ?…..आत्ममुग्धता से ।
नियंत्रित ?..जीवन के सत्य को जानने से…
1) मैं अन्य प्राणियों जैसी ही आत्मा हूँ
2) मेरे पास सब संयोगों से है
3) अस्थायी है
4) कर्माश्रित है ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

पर्यूषण में Rituals से Spiritual की ओर बढ़ना है;
Spiritual यानि उतार/ चढ़ाव में स्थिरता ।

क्षमा यानि धरती जैसी सहिष्णुता ।
4 स्थितियों में …
1) स्वार्थवश
2) मज़बूरी में/ परिस्थितिवश
3) भड़ास निकालने के बाद
4) अंतरआत्मा से – असली/ उत्तम ।

जब 1) से 3) में क्षमा रखते हैं तो अंतरआत्मा से क्यों नहीं !
क्रोध के संस्कार तो हैं पर कलह मत होने दें;

कलह के कारण…
1) रुचि भेद
2) आग्रह
3) ग़लतफहमी
4) स्वार्थ/अहम् –
स्वार्थ सबसे बड़ा कारण है और अहम् उसे हवा देता है ।
बदले का मज़ा तो एक दिन का, क्षमा जीवन भर की ।
बदला नहीं बदलें ।
बार-बार भावना भायें… “मुझे क्षमा रखनी है”

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

पेड़ आदि को काटने में हिंसा कम, बकरे/मुर्गे में ज्यादा,
क्योंकि हिंसा आत्मा की नहीं, प्राणों (इंद्रियाँ,मन,वचन,काय आदि) की होती है ।
पेड़ में 4 प्राण (स्पर्शन-इंद्रिय,श्वांस,आयु,काय),
बकरे/ मुर्गे में 10 प्राण…
(वाणी,मन,पाँच-इन्द्रियां,श्वांस,आयु,काय) होते हैं ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

(तड़पते/खूनादि को देख कर दया  समाप्त होने लगती है/क्रूरता बढ़ती है/स्वयं की आत्मा का हनन भी होता है)

एक भिखारी सिर्फ सिक्के उठाता था, नोट वापस कर देता था ।
सब लोगों ने खेल बना लिया, वह बड़े बड़े नोट लौटा देता था ।
खेल खेल में लोगों के खूब सिक्के चले जाते थे ।

हम भी संसार में बुद्धु बन कर खूब खो रहे हैं, अपना पैसा (मूल्यवान जीवन) और समय बर्बाद कर रहे हैं ।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी

आज गुरुवर का 39वाँ पावन दीक्षा-दिवस है ।

शरीर से जो भी निकलता है, वह गंदा होता है, पर दूध क्यों नहीं ?
क्योंकि दूध वात्सल्य से निकलता है ।

आर्यिका श्री सुपार्श्वमती माताजी

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