भगवान/ गुरु की परिक्रमा क्यों ?
सीमा निर्धारण, मेरा तेरे अलावा इस सीमा के बाहर कोई और नहीं।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

आत्मा में अस्पर्शन, स्पर्शन नहीं !
पर वह शरीर को स्पर्श कर रही है ?
आत्मा तो स्पर्श करती है, हम उसे स्पर्श नहीं कर सकते।
उसमें स्पर्शन के गुण भी नहीं (हल्का/भारी, ठंडा/गरम,
चिकना/खुरदरा, मुलायम/कठोर)।

चिंतन

Google Map, Route बताता है पर बार-बार ग़लत चले जाने पर नाराज़ नहीं होता, बार-बार Reroute बता-बता कर दिशा निर्देश देता रहता है।
और हम ! सामने वाले की एक ग़लती करने पर ?

चिंतन

कविता में अनुशासन होता है; शब्दों का Repetition न होने आदि का।
इसीलिये उसे बार-बार सुनने का मन होता है, सुहावनी होती है।
गद्य में ऐसा नहीं।
ऐसे ही बोलने में अनुशासन (हित, मित, प्रिय) होना चाहिये, तब लाभ ज्यादा। इसीलिये आचार्य ने कहा → प्रमत्त-योगात्प्राण-व्यप-रोपणं हिंसा यानी प्रमाद के साथ बोलना (योग) हानिकारक है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

Addiction बुरी चीजों का तो बुरा होता ही है, अच्छी आदतों का भी अच्छा नहीं होता।
चाहे वह पूजा/ स्वाध्याय/ दानादि का ही क्यों न हो! अच्छी लत से मान होता है, पूरी न होने पर क्रोध आता है।

मुनि श्री शीतलसागर जी

विद्या को बांटा नहीं जाता बल्कि योग्य व्यक्ति को खोजकर दी जाती है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

दो दिन जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण होते हैं – एक जब आप पैदा होते हैं और दूसरा जब आप जानते हैं कि क्यों?

आचार्य श्री विद्यासागर जी

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