क्षु.जिनेन्द्र वर्णी जी आचार्य श्री के सानिध्य में सल्लेखना ले रहे थे। एक बार आचार्य श्री को सम्बोधन करने में देरी हो गयी।
तब वर्णी जी बोले – आचार्य श्री आप मुझे छोड़ कर मत जाना।
आचार्य श्री – सल्लेखना तो स्वयं ली जाती है, किसी के सहारे से नहीं।
यही आचार्य श्री ने स्वयं करके दिखा दिया, किसी को पता ही नहीं कि सल्लेखना शुरु हो गयी है। अंत में जब अंतिम सांसें गिन रहे थे तब पता लगा कि वे तो सल्लेखना पहले ही ले चुके हैं।

1. वेग – काम करने की गति सामान्य/ कुछ अधिक।
2. आवेग – व्यक्ति के भावों में उछाल आता रहता है।
3. उद्वेग – उद्वलित/ क्रोधित/ बेचैन रहता है।
तीनों में शांति क्रमशः अशांति में बढ़ती हुई।
4. संवेग – अशांत को शांत कर देता है। कर्तव्य करता है, फल भाग्य पर छोड़ देता है। धार्मिक प्रकृति वाला।

प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर जी के अंतिम 3 प्रवचनों से साभार

मोक्षमार्ग में मन व इंद्रियाँ काम नहीं करतीं, उनका निग्रह* काम करता है।
*नियंत्रण / सीमांकन

आचार्य श्री विद्यासागर जी

दायित्व सौंपा जाता है,
कर्तव्य निभाया जाता है, जैसे माता पिता बच्चों के प्रति।
दायित्व को निभाना कर्तव्य होता है।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

डाक्टरों ने एक Experiment किया –> एक महिला के दोनों हाथ मेज पर रखवाये, बीच में Partition खड़ा कर दिया। बायें हाथ के पास एक नकली दायाँ हाथ रख दिया। थोड़ी देर तक डाक्टर नकली दांये हाथ पर Pencil फेरता रहा/ कहता रहा –> ये मेरा दायाँ हाथ है। थोड़ी देर बाद नकली हाथ पर हथौड़ा मारा तो महिला दर्द से चीख पड़ी। क्योंकि वह नकली हाथ(पर को) अपना मानने लगी थी।

(डा.एस.एम.जैन)

अनुभव/ इंद्रियों पर आधारित प्रमाणिकता गलत भी हो सकती है जैसे पीलिया वाले के रंगों का अनुभव।
गुरु/ शास्त्र पर आधारित ज्ञान प्रमाणिक होता है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

माताजी से प्रश्न → बड़े-बड़े लोग बड़े-बड़े दान करते हैं, हमें अनुमोदना करनी चाहिये या नहीं? (क्योंकि अधिक धन तो अधिक दोष सहित आता है)
पहले तो माताजी चुप रहीं। दुबारा पूछने पर –
माताजी → दान की क्या अनुमोदना, त्याग की अनुमोदना करो।

आर्यिका श्री विज्ञानमति जी

(सार-सार को गहलयो, थोथा देय उड़ाय)

(अंजू)

जिज्ञासा अपूर्णता से पैदा होती है या महत्वाकांक्षा बहुत हो जाने पर।
जिज्ञासायें समाप्त होने पर/ संतुष्ट होना ही समाधि है।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

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