बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था में शरीर अलग-अलग पर आत्मा एक।
यदि वृद्धावस्था को स्वीकार लिया तो जीवन में निराशा, यदि अपने को आत्मा मान लिया तो बचपन जैसी स्फूर्ति, युवावस्था वाला आनंद।

(स्व.श्री गिर्राज भाई)

यदि भगवान अचानक आपके सामने आ जायें तो क्या करोगे ?
पहले Confirm करें; भगवान ख़ुद आये हैं या हम भगवान के पास गये हैं।

(मृगांक)

(यदि भगवान आये हैं तो क्षणिक हैं, हम उनके पास गये हैं तो स्थायी)

आत्मा में अस्पर्शन, स्पर्शन नहीं !
पर वह शरीर को स्पर्श कर रही है ?
आत्मा तो स्पर्श करती है, हम उसे स्पर्श नहीं कर सकते।
उसमें स्पर्शन के गुण भी नहीं (हल्का/भारी, ठंडा/गरम,
चिकना/खुरदरा, मुलायम/कठोर)।

चिंतन

Google Map, Route बताता है पर बार-बार ग़लत चले जाने पर नाराज़ नहीं होता, बार-बार Reroute बता-बता कर दिशा निर्देश देता रहता है।
और हम ! सामने वाले की एक ग़लती करने पर ?

चिंतन

कविता में अनुशासन होता है; शब्दों का Repetition न होने आदि का।
इसीलिये उसे बार-बार सुनने का मन होता है, सुहावनी होती है।
गद्य में ऐसा नहीं।
ऐसे ही बोलने में अनुशासन (हित, मित, प्रिय) होना चाहिये, तब लाभ ज्यादा। इसीलिये आचार्य ने कहा → प्रमत्त-योगात्प्राण-व्यप-रोपणं हिंसा यानी प्रमाद के साथ बोलना (योग) हानिकारक है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

Addiction बुरी चीजों का तो बुरा होता ही है, अच्छी आदतों का भी अच्छा नहीं होता।
चाहे वह पूजा/ स्वाध्याय/ दानादि का ही क्यों न हो! अच्छी लत से मान होता है, पूरी न होने पर क्रोध आता है।

मुनि श्री शीतलसागर जी

Archives

Archives
Recent Comments

April 8, 2022

March 2025
M T W T F S S
 12
3456789
10111213141516
17181920212223
24252627282930
31