बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था में शरीर अलग-अलग पर आत्मा एक।
यदि वृद्धावस्था को स्वीकार लिया तो जीवन में निराशा, यदि अपने को आत्मा मान लिया तो बचपन जैसी स्फूर्ति, युवावस्था वाला आनंद।
(स्व.श्री गिर्राज भाई)
Nobody can go back and start a new beginning,
but anyone can start today and make a new ending.
(Mayank Pandya)
ज़िंदगी दो हिस्सों में ख़त्म हो जाती है ->
1. अभी उम्र नहीं है।
2. अब उम्र नहीं रही।
(सुरेश)
यदि भगवान अचानक आपके सामने आ जायें तो क्या करोगे ?
पहले Confirm करें; भगवान ख़ुद आये हैं या हम भगवान के पास गये हैं।
(मृगांक)
(यदि भगवान आये हैं तो क्षणिक हैं, हम उनके पास गये हैं तो स्थायी)
भगवान/ गुरु की परिक्रमा क्यों ?
सीमा निर्धारण, मेरा तेरे अलावा इस सीमा के बाहर कोई और नहीं।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
आत्मा में अस्पर्शन, स्पर्शन नहीं !
पर वह शरीर को स्पर्श कर रही है ?
आत्मा तो स्पर्श करती है, हम उसे स्पर्श नहीं कर सकते।
उसमें स्पर्शन के गुण भी नहीं (हल्का/भारी, ठंडा/गरम,
चिकना/खुरदरा, मुलायम/कठोर)।
चिंतन
Google Map, Route बताता है पर बार-बार ग़लत चले जाने पर नाराज़ नहीं होता, बार-बार Reroute बता-बता कर दिशा निर्देश देता रहता है।
और हम ! सामने वाले की एक ग़लती करने पर ?
चिंतन
Kanan Jaswal’s Thought of the Day:
While the strength of a chain is that of the weakest link, a team is as strong as the captain.
कभी ये मत सोचिए कि अब इस उम्र में कुछ नहीं रहा।
सूखे मेवे हमेशा ताजे फलों से महंगे होते हैं।
(दिव्या जैन)
नारी को ताड़न का अधिकारी क्यों कहा ?
माँ, बहन, पत्नी को नहीं कहा। नारीत्व पर अंकुश की बात कही है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
इकाई से ही दहाई आदि बड़ी-बड़ी संख्यायें बनतीं है।
मुनि श्री सुप्रभसागर जी
सुख चाहते हो तो सद्गृहस्थ बनो।
सच्चा सुख चाहते हो तो साधु बनो।
चिंतन
कविता में अनुशासन होता है; शब्दों का Repetition न होने आदि का।
इसीलिये उसे बार-बार सुनने का मन होता है, सुहावनी होती है।
गद्य में ऐसा नहीं।
ऐसे ही बोलने में अनुशासन (हित, मित, प्रिय) होना चाहिये, तब लाभ ज्यादा। इसीलिये आचार्य ने कहा → प्रमत्त-योगात्प्राण-व्यप-रोपणं हिंसा यानी प्रमाद के साथ बोलना (योग) हानिकारक है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Addiction बुरी चीजों का तो बुरा होता ही है, अच्छी आदतों का भी अच्छा नहीं होता।
चाहे वह पूजा/ स्वाध्याय/ दानादि का ही क्यों न हो! अच्छी लत से मान होता है, पूरी न होने पर क्रोध आता है।
मुनि श्री शीतलसागर जी
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