जैन दर्शन का कर्म-सिद्धांत पूर्ण स्वतन्त्र है।
इसमें भगवान तक पर Dependency/ उनका Interference Allowed नहीं।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

दया/ सेवा नींव है।
Ritual इमारत, Spirituality शिखर।
बिना नींव के इमारत बनेगी नहीं, सिर्फ नींव इमारत कहलायेगी नहीं ।
बिना शिखर के धार्मिक इमारत नहीं कहलायेगी।

चिंतन

सल्लेखना के आखिरी 4 साल में शरीर को कष्ट सहिष्णु बनाना होता है, इससे सहन शक्ति बढ़ती है/ शरीर आरामतलब नहीं बनता है।
फिर रसों (मीठा/ नमकीनादि) को छोड़ते हैं। तब छाछ, तत्पश्चात जल, अंत में उसका भी त्याग कर देते हैं।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी)

पहले साधु बनने का उपदेश क्यों दिया जाता है ?
पहले मंहगा/ कीमती माल ग्राहक को दिखाया जाता है, यदि चल गया तो बड़ा फायदा (दोनों पक्षों को)।
न चल पाये तो सस्ता माल दिखाया जाता है (छोटे-छोटे नियम)।

गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी)

एक बार जब कोई धोखा देता है तो हमें गुस्सा आता है।
किन्तु मोह हमें जीवन-भर धोखा देता रहा उस पर हमें प्रेम क्यों आता है !!

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

सूरज उनको भी प्रकाशित करता है जो उसे सम्मान नहीं देते। बस प्रकाश को ग्रहण करने का पुण्य होना चाहिये (आँखों में देखने की क्षमता) ।
साधु उस स्थान/ समाज में भी जाते हैं जहाँ उनको मानने वाले नहीं होते हैं।

निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी

मोबाइल में ढेरों सूचनायें जमा होने पर वह काम करना बंद कर देता है, तब नया लेना बेहतर है।
हमारे मन में लोगों के प्रति कटुता अत्यधिक होने पर ऐसा मन/ शरीर बदलना बेहतर न होगा !!

चिंतन

कुछ धर्मों ने प्रचार/ फैलाने के लिये हिंसा तथा प्रलोभन का सहारा लिया। क्योंकि उनके पहले प्रचारक से पहले वह धर्म था ही नहीं सो मानने वाले भी नहीं थे।
जबकि पूर्व में वह धर्म पहले से चले आ रहे थे जैसे आदिनाथ/ महावीर भगवान। उन्हें प्रचारादि की ज़रूरत ही नहीं थी।

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