इस मौसम में सब वृक्ष अपने पत्ते छोड़ते हैं।
क्या उनको पुण्य मिलेगा ?
नहीं,
क्योंकि उनके पत्ते छोड़ने का कारण ममत्व कम करना नहीं बल्कि नये पत्ते प्राप्त करना होता है।

चिंतन

ऐसी कहावत क्यों ?
जब कि उसे सुनाई तो देता है, अपने बच्चे की हलकी सी आवाज़
भी सुन लेती है!
पर ये तो राग/मोह की आवाज़ होती है,
बीच सड़क पर तेज़ हौर्न नहीं सुनती/सुनकर अनसुना कर देती है।

यदि हम भी अपने हित की बातें न सुनते हों, अनसुना कर देते हों तो!!

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

यदि शुभ भाव रखेंगे/ अपने आपको खुश अनुभव करेंगे तो दु:ख प्रवेश कैसे करेगा !
बाकी उपायों से दु:ख दूर नहीं होता, उन पर मरहम लग जाती है/
थोड़े समय के लिए सुकून मिल जाता है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

ऊपर उठने/ ऊँचे आकाश में स्थापित होने के लिये राकेट को नीचे के भागों को छोड़ना पड़ता है।
लोगों की तथा अपनी नज़र में उठने के लिये आलोचनाओं को नज़रअंदाज़ करना होगा।

उज्वल पाटनी

Old Age  Senior Citizen 
1 Support, लेते हैं Support देते हैं, युवाओं को
2 छुपाने का मन उजागर करने का
3 अहंकारी अनुभवी, विनम्र, संयमी
4 नयी पीढ़ी के विचारों से टकराता है Adjust, नये विचारों को अपनाते भी हैं
5 अपनी राय थोपते हैं दूसरों को समझ‌ते हैं

(अरविंद)

यदि निरंतर बहने/ चलने का स्वभाव हो तब बांध भी बना दो तो भी प्रगति/ चलने को रोक नहीं सकते।
तब जल स्तर ऊपर चलने लगता है और बढ़ते-बढ़ते बांध के ऊपर से बहना शुरू कर देगा।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

करोड़ों बार स्तोत्र पढ़ने/ भक्तामर आदि का अखंड पाठ जीवन भर करने से उतना फल नहीं मिलेगा, जितना पाँच मिनट सब जीवों के सुखी रखने के भाव भाने से मिलेगा।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

सोना तपाने से शुद्ध हो जाता है फिर भी सोने के तरल होने पर उसमें सुहागा डाला जाता है ताकि उसकी शुद्धता बनी रहे।
श्रावक भी उपवासादि से शुद्ध तो होता है पर संयम रखने से वह शुद्धता बनी रहती है।

मुनि श्री मंगलानंद जी

रावण धर्म का पंडित, मज़बूत/ सुरक्षित किले के अंदर, बड़ी सेना का मालिक, फिर भी हार गया।
जबकि राम थोड़ी सी सेना के साथ किले के बाहर फिर भी जीते।
कारण ?
राम संयमी थे, रावण असंयमी।

मुनि श्री सुधासागर जी

संसार की वेदना को मिटाने के लिए तप रूपी बाम को लगाना होगा।
कषाय (मायादि) के टेढ़ेपन को ताप से ही सीधा किया जा सकता है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

संसार में धन संचय से समृद्धि/ प्रगति बताई, धर्म में दुर्गति।
लेकिन संचित समृद्धि का सदुपयोग किया तो शाश्वत प्रगति।

निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी

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