एक चोर साधु की कुटिया को खुला देखकर, चोरी करने घुस गया।
कुछ न मिलने पर लौटने लगा।
साधु… “आये हो तो एक माला फेर लो।”
चोर माला फेरने लगा।
उसी समय राजा गश्त पर निकला, कुटिया का दरवाजा खुला देखकर अंदर आया।
दोनों को ध्यान में देख अपना हार चढ़ा गया।
साधु ने हार चोर को दे दिया।
चोर …थोड़ी देर के गुरू-सानिध्य से कीमती हार मिला, पूरे समय के सानिध्य से मालामाल क्यों न हो लूं !
वह शिष्य बन गया।

मुनि श्री विशालसागर जी

इंसान सारी ज़िंदगी इस धोखे में रहता है कि…
वह लोगों के लिए अहम है।
लेकिन हकीकत यह होती है कि..
आपके होने ना होने से किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ता।

न रुकी वक़्त की गर्दिश, न ज़माना बदला,
पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला।

(एन.सी.जैन–नोएडा)

🌺🌸🌸🌺

दिन में भोजन, रात को जुगाली। ऐसे ही दिन में अध्ययन और रात में जुगाली के रूप में अध्ययन का चिंतन होना चाहिए।
जो अध्ययन ज़्यादा करते हैं, वे प्रायः चिंतन के क्षेत्र में प्रमादी होते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

“यस्य कस्य प्रसूतोsपि, गुणवान पूजते नरः।
धनुर्वंश-विशुद्धोपि, निर्गुणः किं करिष्यति।।”

अर्थात- “मनुष्य कहीं भी, किसी भी कुल में पैदा हुआ हो, यदि वह गुणवान है, तभी उसकी पूजा होती है।
अच्छे बांस से बना धनुष यदि डोरी-प्रत्यंचा (गुण) विहीन हो, तो वह किसी काम का नहीं होता।”

(सुरेश)

“अच्छा बनना” और “अच्छा होने” में जमीन और आसमान का फ़र्क है।
हम अच्छा बनने के लिये न जाने कितने अच्छे लोगों की ज़िंदगीयों से खेल जाते हैं,
और…
जो अच्छे होते हैं वो हज़ारों की ज़िदगीयां बना जाते हैं …. ।

(सुरेश)

छत्तीसगढ़ के जंगलों में एक वैद्य रास्ता भूल गये।
गाँव वालों से पूछा तो उन्होंने कारण बताया… “भूलन-बेल छुआ गयी होगी”।
हम सब भी तो मोह-बेल छूने से अपना स्वरूप भूलकर संसार के जंगलों में भटक रहे हैं।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

भारत को जब सोने की चिड़िया कहा जाता तब ग्रीस से कुछ लोग कारण समझने आये।
पता लगा – भारत का राजा अच्छा है।
राजा चन्द्रगुप्त से मिले, उन्होंने अपने गुरु चाणक्य को श्रेय दिया।
गुरु से पूछा, उन्होंने धर्म को।
तो आप क्या करते हैं ?
मैं राजा को धर्म बताता/ दिशा निर्देश देता हूँ।
हम भी अपने जीवन को सोने जैसा बनाना चाहते हैं तो गुरु से धार्मिक दिशा निर्देश लेते रहें।

राधाकृष्ण पिल्लई

सागर से कहा — देखो ! ये सूरज कितना दुष्ट है, तुमको जलाकर तुम्हारा पानी हड़प लेता है।
सागर — नहीं वह मुझ पर और सब पर परोपकार करता है।
खारे पानी को मीठा बनाकर मुझे वापस कर देता है, जहाँ मैं नहीं पहुँच सकता वहाँ की भी ज़रूरतें पूरी करता है।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

बादलों से चट्टानों ने शिकायत की… चारों ओर तुम हरियाली कर देते हो, मुझ पर एक घास का तिनका भी नहीं उगाते !
बादल… इसमें ग़लती तुम्हारे अकड़पने की है। पहली बरसात में ही भूमि नरम हो जाती है पर तुम पूरी बरसात में अपने अकड़पने में ही बनी रहती हो।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

चिड़िया की तलाश

मुनि क्षमा सागर जी को
समर्पित

एक चिड़िया
अब खोजती है उसे
जिसके कमरे में
उसने अपने बच्चे बड़े किये थे।
जब वो था,
तब वो सोचती थी
ये आदमी
यहाँ से चला जाये,
और
कहीं और जाकर जिये
ताकि मैं, और मेरा बच्चा
यहाँ सुकून से रह सकें।
अब वो आदमी
कहीं दूर चला गया है,
तो
अब वो
चिड़िया उदास है।
क्योंकि अब
उस पर
कोई गीत नहीं लिखता,
और
न कोई अब उसके लिए
तराने ही गुनगुनाता है।
अब उदासी ही
बस उसके आसपास है,
और अब बस ऐसे ही,
उसका जीवन
बीता जाता है।
वो चाहती है
वो फिर आये,
और उस पर
गीत लिखे..
जिसमें वो हो
उसका बच्चा हो
और आसमान
और एक नदी भी हो।
हों बहुत से पेड़, और घरोंदे
कुछ सीढ़ियां
कुछ कदम, कुछ पत्थर
एक देवता, कुछ पुजारी
और कुछ यति भी हों।
चिड़िया
मुझसे पूंछ नहीं पाती,
और मैं उससे कह नहीं पाता,
कि..
अब ये कमरा कभी नहीं भरेगा।
कि… इसकी धूल भी
अब कभी साफ नही होगी
क्योंकि
इसका देवता,
अब कभी न आने को
कहीं चला गया है।

– निःसंग बन्धु (ब्र. नीलेश भैया)

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