जीवन का लक्ष्य मनोरंजन नहीं, रमण है;
बाह्य रमण (विषय-भोगों में) अधोगमन कराता है,पर गिरना ध्येय कैसे हो सकता है!
अंतरंग/ आत्मा में रमण उर्ध्वगमन कराता है।
निर्यापक निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
भगवान की वाणी को भोजन की तरह पूरा खोलकर, हर किसी के सामने परोसते नहीं रहना चाहिये वरना उसका महत्त्व कम हो जाता है।
उपदेश प्रज्ञावान को ही देना चाहिये, अक्षरज्ञानी को नहीं, श्रद्धावान को। भील भी श्रद्धापूर्वक छोटे-छोटे नियम अंत तक निभाकर प्रज्ञावान प्रसिद्ध हो गये।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
धर्म दो प्रकार का –
1. श्रावकों का…. अनुष्ठान की प्रमुखता,
2. श्रमणों (साधुओं) का…. अध्यात्म की प्रमुखता।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
(क्योंकि श्रावकों का मन बहुत भटकता रहता है। पूजा में 8 अर्घों के समय कम से कम 8 बार तो पूजा में मन लगेगा…. गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी)
व्यक्तित्व को शून्य रखें, ताकि कोई उसमें से कुछ भी घटा न सके।
परन्तु जिसके साथ खड़े हो जाय, उसकी कीमत दस गुणा बढ़ जाय।
(सुरेश)
संसार का दूसरा नाम ही समस्या है,
पर समाधान प्रभु का दूसरा नाम।
पहले स्कूल में दाखिला उन बच्चों को मिलता था जो एक हाथ से दूसरी ओर का कान पकड़ लें।
मुनिराज भी प्रतिदिन 3 बार अपने कान पकड़ते हैं प्रतिक्रमण के रूप में।
मुनि श्री मंगलानंद जी
हींग की डिब्बी से गंध कैसे दूर हो ?
1. केसर को ज्यादा-ज्यादा मात्रा में बार-बार भरने से।
बार-बार शुभ क्रियाओं से, अशुभ संस्कार खत्म हो जाते हैं।
2. डिब्बी को तपाने से।
तप से भी अशुभ संस्कार समाप्त हो जाते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
Cracked कप को देखकर…. “अरे ! यह तो टूटने वाला है”…. नकारात्मक दृष्टिकोण।
Crack ही तो है, टूटा नहीं है….सकारात्मक।
(एकता-पुणे)
प्रायोगिक धर्म यानि आंतरिक/ व्यवहारिक धर्म जिसका प्रयोग घर तथा कारोबार में हो।
इसके अभाव में मन्दिर में रामायण तथा घर/ कारोबार में महाभारत!
इसीलिये आचार्य श्री विद्यासागर जी ने मूकमाटी महाकाव्य की रचना की है।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
हालाँकि अंधकार बहुत विशाल है, दीपशिखा छोटी सी, पर मेरा विश्वास दीपशिखा पर विशाल है।
(मेरे आसपास वह अंधकार को भटकने भी नहीं देगी)
श्री रविन्द्रनाथ टैगोर
अपने में ईश्वर को देखना…. ध्यान है,
दूसरों में ईश्वर को देखना…….प्रेम,
सबमें ईश्वर को देखना………ज्ञान है।
(श्रीमति शर्मा)
ठंडी सहने को संकल्प तथा अभ्यास चाहिये, गर्म खून नहीं।
निर्यापक मुनि श्री वीरसागर जी
आप चाहे कितनी भी उतावली कर लो/ दौड़ लो, दुनियाँ अपनी गति से ही चलती रहेगी।
हड़बड़ी में काम खराब तथा कर्म बंध भी ज्यादा होते हैं।
चिंतन
कर्म सब काम कर रहे हैं,
आत्मा तो जानती है,
आत्मा करवाती है,
कर्म करता है, क्योंकि शक्तियाँ (योग, मन, भाव) आत्मा में ही हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
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