द्रोणगिर में हम 4-5 बहनों के आचार्य श्री विद्यासागर जी के प्रथम दर्शन के समय, मैने आ. श्री से कुछ व्रत/नियम के लिये प्रार्थना की।
आचार्य श्री ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखकर कहा – आर्यिका (साध्वी) बनो।
शुरुआत कहाँ से करुँ ?
चल-चित्र देखती हो ?
कभी-कभी।
देखना बंद कर दो।
दूसरे दर्शन में व्रत मांगने पर – तत्त्वार्थ सूत्र के उपवास करो।
विधि ?
पंडित पन्नालाल सागर वालों से समझ लेना (उन्हें कैसे पता कि मैं सागर की हूँ और उन्हीं पंड़ित जी से पढ़ती हूँ !)
आर्यिका श्री दृढमति माताजी
तकलीफें बहुत, सो रहना नहीं;
इस युग में मंज़िल (मोक्ष) मिलना नहीं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी –
“अब और नहीं, छोर चाहता हूँ।
घोर नहीं, भोर चाहता हूँ” ।
सज्जन मारता नहीं, साधु बचता भी नहीं।
बड़े गृहस्थ भी अस्त्र शस्त्र नहीं रखते, जैसे राष्ट्रपति।
मुनि श्री सुधासागर जी
ग्वालियर स्टेशन पर एक व्यक्ति Enquiry कर रहा था –
आगरा जाने वाली गाड़ियाँ कितने-कितने बजे है।
फ़िर झाँसी जाने वाली ट्रेनों के बारे में पूछने लगा।
पर तुम्हें जाना आगरा है या झाँसी ?
मुझे तो बस Track Cross करना है।
हम सबकी विडम्बना तो उस व्यक्ति से भी ज्यादा जटिल है –
हमारा Target तो Line Cross करने का भी नहीं है, हम तो जीवनपर्यंत सिर्फ Enquiry ही करते रहते हैं।
चिंतन
Routine काम करते-करते उनको ऊब नहीं आती जो अपने काम में डूब जाते हैं।
डूब कर काम करने से नये-नये उत्साह का संचार होता है/नये-नये अनुभव होते हैं, फिर वह Routine नहीं रह जाता जैसे साधुजन।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मिट जाते हैं, मिटाने वाले;
लाश कहाँ रोती है !
रोते हैं जलाने वाले ।
(N.S.Jain)
जब निंदा करना ग़लत है, तो स्वयं की निंदा करने को क्यों कहा ?
ताकि मद न आये,
साथ-साथ अपनी प्रशंसा पर भी रोक ज़रूरी;
अपनी प्रशंसा से दूसरों की निंदा हो ही जाती है।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
कंजूस अनुपयोगी,
फिजूलखर्ची दुरुपयोगी,
मितव्ययी सदुपयोगी।
उदारता तब आयेगी, जब आपकी आसक्त्ति कम होगी।
आसक्त्ति कम तब होगी,
जब आप सम्पत्ति/ जीवन की नश्वरता को समझेंगे।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
क्रोध, मान, माया, लोभ तथा काम-वासना की भी उत्तेजना होतीं हैं।
उत्तेजना = कषाय आदि का तीव्र रूप, जिसमें कुछ भी करने को तैयार, मरने-मारने को भी।
क्रोधादि को तो रोक नहीं सकते पर उनकी उत्तेजना Avoidable है।
उत्तेजित को कहते हैं – मानांध, कामांध आदि।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
सूअर नीचे गिरे फल ही नहीं खाता उस पेड़ की जड़ भी खा जाता है और ऊपर सिर उठाकर देखता भी नहीं है, गर्दन ही ऐसी है कि कृतज्ञता करने वाले की ओर देख भी नहीं सकता।
(इसीलिए उसके नाम को ही गाली मानते हैं)
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
व्रतियों की बढ़ती संख्या देखकर ऐसा नहीं लगता कि ब्रह्मचारियों/ब्रह्मचारिणीयों की भीड़ बढ़ती जा रही है ?
आचार्य श्री – “अन्यथा शरणं नास्ति” ऐसा सोचकर ही तो धर्म में आये हैं।
धर्म में कभी भीड़ नहीं होती क्योंकि यहाँ सब अपना-अपना कल्याण करते हैं।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
साधु और शेर भोजन करके शांत, गृहस्थ और हाथी को जितना मिष्ठान/माल उतना उदंड।
डॉक्टर भी मोटापा कम कराने के लिये मीठा बंद कराते हैं।
साधु जानते हैं कि माल खाने से मद आता है।
मुनि श्री सुधासागर जी
पहले आगे के बाल क्यों उड़ते हैं ?
प्रकृति Indication देती है – आगे वाला समय (पहले वाला) उड़ गया, अब वह तो पकड़ में नहीं आयेगा।
पिछला वाला अभी बचा है, कम से कम उसे तो सम्भाल लो।
चिंतन
व्यक्ति दु:खी तो अपने कर्मों से होता है, फिर उस पर करुणा क्यों और कैसे आ सकती है ?
प्रथम दृष्टि से कर्म फल पर चिंतन सही है पर बाद में उसके लिये कुछ करने का विचार ज़रूर करें वरना दया/करुणा समाप्त ही हो जायेगी ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
राजा ने (निमित्त) ज्ञानी से पूछा –
मेरा कुल कैसा है ?
कुलीन नहीं है।
पता लगाया गया, राजा एक चरवाहे का बेटा था, जो गोद लिया गया था।
तुमने कैसे पहचाना ?
आप इनाम में भेड़-बकरियाँ देते हैं जबकि राजा तो सोना-चाँदी देते हैं।
प्रवृत्ति से औकात की पहचान होती है।
मुनि श्री प्रमाण सागर जी
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