Temporary Service वाले की नौकरी छूटने पर उसे उतना दु:ख नहीं होता जितना Permanent वाले को ।
संयोगों/सम्बंधों को अस्थायी समझने वालों को संयोगों/सम्बंधों के छूटने पर कम दु:ख होता है ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

एक रूपक –
देवदर्शन करते समय ऐसा आभास हुआ कि भगवान पूछ रहे हों-
तुम्हारे साथ एक बिटिया आती थी, आजकल दिखती नहीं है?
हाँ ! प्रभु वह आजकल व्यस्त रहने लगी है।
तो क्या मैं उसका नाम अपने खाते में से काट दूँ ?
नहीं नहीं प्रभु ! जिसका नाम आपके खाते में से कट गया, उसका नाम किस खाते में लिख जायेगा, सोच कर मन सिहर जाता है !

चिंतन

बोलने में शारीरिक श्रम लगता है/खून ख़र्च होता है। एक शब्द के उच्चारण में एक पाव दूध जितनी शक्ति लगती है।
इसलिये कम बोलना चाहिये, कम बोलने से गंभीरता बनी रहती है/सोचने की क्षमता बढ़ जाती है।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

संकल्प बुद्धि से लिया जाता है, पर मन संकल्प लेते ही पुराने संस्कार नहीं छोड़ पाता है।
पीपल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिये उसे 64 पहर तक धैर्यपूर्वक कूटा जाता है;
ऐसे ही बुद्धि और मन को एकमेव करने के लिए बहुत पुरुषार्थ करना पड़ता है, वरना दोनों में द्वंद/अशांति बनी रहती है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

कम प्रकाश में घड़ी में समय नहीं दिखता। दृष्टि को सुइयों पर केन्द्रित करें, तो समय का पता लग जाता है।

कम या ज़्यादा प्रकाश भाग्य से होता है; दृष्टि को सही बिन्दु पर केन्द्रित करना पुरुषार्थ से।

नासिकाग्र पर दृष्टि केंद्रित करने पर समय (आत्मा) का पता लग जाता है।

चिंतन

60 लाख की कार की कीमत जब 60 रुपये वाली खिलौना कार के बराबर मानोगे, तभी Enjoy कर पाओगे, वरना उसकी सीट से प्लास्टिक कवर उतार नहीं पाओगे।
हर वह चीज़ जो खरीदी जा सके, खिलौना ही तो है, कोई 60 लाख का कोई 60 रुपये का।

(अरविंद)

शिष्य – इच्छा क्या है ?
गुरु – जो कभी न पूरी हो, और एक-आध पूरी हो भी जाए, तो दूसरी पैदा हो जाए; प्राय: आशा के विपरीत फल आयें।

मुनि प्रमाण सागर जी

रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर ली थी। राम रावण के एक रूप को मारते थे, तभी उसके अनेक रूप पैदा हो जाते थे।
इच्छा भी ऐसी ही होती है: एक समाप्त होते ही अनेक इच्छाएं पैदा हो जाती हैं।

चिंतन

कड़वी गोली चबायी/मुंह में ज्यादा देर रखी नहीं जाती है, निगल ली जाती है । तब वह मुंह का रस खराब करने की बजाय फायदा करती है/कीटाणुओं (कर्म के) को मार देती है।

(कुरुप भाई)

एक जंगल में बांसों के संघर्षण की आवाज़ अग्नि में बदल गई।
गाँव से भी वैसी ही आवाज आ रही थी। यह मथनी की आवाज़ थी। इसमें आग नहीं, नवनीत निकला।
यह संघर्षण नहीं, मंथन था। इसमें एक छोर खींचा जाता, तो दूसरा ढीला छोड़ा जाता था।

मुनि प्रमाणसागर जी

Archives

Archives

April 8, 2022

November 2024
M T W T F S S
 123
45678910
11121314151617
18192021222324
252627282930