आधार – घड़ा/सृष्टि/चैत्यालय
आधेय – घी/ दृष्टि/ चैत्य
आधार से ज्यादा आधेय महत्त्वपूर्ण होता है, उसे सम्भालना/सुधारना ज्यादा ज़रूरी।
घर से एक साधु बना हो, तो वह घर सम्मानीय हो जाता है।
जिस मिट्टी पर भगवान के चरण पड़ जाते हैं, वह मिट्टी पूज्य हो जाती है जैसे तीर्थस्थल।
मुनि श्री सुधासागर जी
अमियाँ तोड़ने के लिये बच्चे पत्थर मारते हैं, अमियाँओं के टुकड़े गिरते हैं पर अमियाँ डाल को छोड़तीं नहीं। पकने पर हवा के झौंके से भी डाल को छोड़ देती हैं।
मोह में हमारा भी यही हाल होता है पर मन में वैराग्य पकने पर ज़रा से बहाने से घरबार छूट जाता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
पुण्यात्मा की पूजादि इसलिये क्योंकि साधारणजन ऐसे गुणों को पा नहीं पाते ।
उनके पुण्य साधारणजन की रक्षा करते हैं जैसे राजा करते थे ।
शेर राजा इसलिये कहा जाता है क्योंकि वह बड़े जानवरों का शिकार करता है और शेर के भोजन के बाद छोटे छोटे जानवर उसके बचे हुये शिकार से पेट भरते हैं ।
धनवान वही जिसके पड़ौसी निर्धन न हों ।
धर्मात्मा वही जिससे दूसरों के जीवन में धर्म आये ।
मुनि श्री सुधासागर जी
बचपन में नियति वह सब देती है, जिसकी ज़रूरत होती है।
वृद्धावस्था में वह सब वापस लेती जाती है, जिस-जिस की ज़रूरत नहीं होती – पैरों की ताकत, दूर क्यों जाना !
इन्द्रियों की शक्त्ति, ताकझांक क्यों करना ! अपने में रहो।
(सुमन)
रोज़ वही पूजा पाठ से कुछ लोगों को ऊब आने लगती है।
वही लोग पाप भी रोज़ करते हैं, उससे ऊब क्यों नहीं होती ?
जो अगली कक्षा में नहीं चढ़ पाते/वही Course बार बार पढ़ने से बोर हो सकते हैं, जो लगातार अगली कक्षा में बढ़ते रहते हैं, वे बोर नहीं होते, नया-नया उत्साह/आनंद आता रहता है।
मुनि श्री सुधासागर जी
“एक वृक्ष लगाने में 100 संतान पाने का पुण्य मिलता है”,
ऐसा इसलिये कहा क्योंकि एक वृक्ष इतनी ऑक्सीजन देता है जो 100 बच्चों को जीवन भर के लिये पर्याप्त हो।
चिंतन
कर्त्तव्य – सबका/सब पर,
दायित्व – कुछ का/कुछ पर ।
(कर्त्तव्य में प्राय: कर्त्ता भाव आ जाता है)
आचार्य श्री विद्यासागर जी
संसार शोकमय,
काया रोगमय,
जीवन भोगमय,
सम्बंध वियोगमय;
बस, धर्म/सत्संग ही उपयोगमय होता है ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
आप चाय पी रहे हैं, किसी का धक्का लगा, चाय छलकी।
प्रश्न – क्यों छलकी ?
उसने धक्का दिया इसलिये छलकी।
ग़लत।
कप में चाय थी, इसलिये छलकी (ज्यादा भरी होगी तो ज्यादा छलकेगी)
आपको धक्का लगे तो क्या बाहर आयेगा ?
जो आपमें है वह – धैर्य/क्रोध/मान।
(सलौनी – सहारनपुर)
जो सब स्वीकार कर लें/ सबको स्वीकार लें – वह प्रभु।
हम प्रभु को स्वीकार लें/ प्रभु की स्वीकार लें तो हम भी प्रभु बनने की राह पर चलने लगेंगे।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
गुटका आदि व्यसनों से भक्त को ज्यादा पाप लगता है क्योंकि उनको तो प्रशस्त-पुण्य मिला था गुरु/भगवान की सेवा करने का, उस पुण्य को उन्होंने ऐसे कामों में बर्बाद कर लिया !
मुनि श्री सुधासागर जी
डाकू से बातें कितने आदरपूर्वक, ध्यान देकर पर अरुचि से करते हैं; मित्र से रुचिपूर्वक।
संसारीयों से पूरा ध्यान, आदर पूर्वक पर अंदर से अरुचिपूर्वक, परमार्थियों से रुचिपूर्वक बातें करें/सम्बंध रखें।
चिंतन
अकाल में भी जब सब ओर पानी समाप्त हो जाता है, आँख में पानी बचा रहता है (जब तक आदमी बचा रहता है)।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
सोने से बेहतर है, गहना बनना।
पर उसमें तो अशुद्धि मिलाई जाती है ?
पर थोड़ी अशुद्धि के साथ उसकी उपयोगिता भी तो बढ़ जाती है;
वह अशुद्धि भी तप के द्वारा सोने जैसी हो जाती है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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