भाव शब्दों के, भंगिमा शरीर की;
दोनों एकरूप भी हो सकते हैं, भिन्न-भिन्न भी।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
चलते हाथी के ऊपर मक्खी बैठी थी। थोड़ी देर बाद मक्खी ने हाथी से कहा, “यदि मेरे बैठने से चलने में वज़न ज़्यादा लग रहा हो, तो मैं उड़ कर बाकी यात्रा पूरी कर सकती हूँ।”
हर जीव अपने अस्तित्त्व को स्वीकार करवाना चाहता है। इसी कारण हम अच्छे कपड़े, ज़ेवर, आदि का प्रयोग करते हैं।
(ब्र.रेखा दीदी)
वैराग्य में घर छोड़ा नहीं जाता। घर छूटता भी नहीं; अपने घर में आया जाता है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
बहुत लोग तुम्हें जानते हैं; इससे मान की अनुभूति होगी।
तुम बहुत लोगों को जानते हो; इससे आनंद की अनुभूति होगी।
(सुमनलता – दिल्ली)
सृष्टि अधूरा देती है; पुरुषार्थ से हमको पूर्ण करने को कहती है,
जैसे…
बीज दिया, फ़सल किसान उगाये;
मिट्टी दी, घड़ा कुम्हार बनाये;
इन्द्रियां दीं, उपयोग हम पर छोड़ा।
नाई, दर्जी, सभी पसंद पूछकर आगे की क्रिया करते हैं, सृष्टि भी।
मुनि श्री सुधासागर जी
आर्यिका श्री विज्ञानमती माताजी को आहार में इडली में तोरई डालकर दी गयी, पर उन्होंने उसे ग्रहण नहीं किया।
कारण ? दोनों चीज़ें भक्ष्य थीं, फिर भी नया स्वाद तो बन गया!
अंजू – कोटा
वैभव हमेशा परिग्रह ही नहीं, अनुग्रह* भी है।
*Grace
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मनुष्य जागते में भी गिर जाते हैं; पक्षी सोते में भी नहीं।
कारण ?
पक्षी अपनी मर्यादा कभी नहीं छोड़ते; जबकि मनुष्य मर्यादा तोड़ने में अपनी शान मानते हैं।
मुनि श्री प्रमाणसागर
किसान तीन टांग वाले स्टैंड पर खड़ा होकर अनाज से भूसा अलग करता है। ऐसे ही तीन पदों के हाइकू से फ़ालतू शब्द छँट जाते हैं; भाव बचा रहता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
सब सही कहना सही नहीं। समग्रता से, दूसरे के दृष्टिकोण से देखना अनेकांत है।
गांधी जी ने कहा था, “मैं अपने दुश्मनों को भी अपना मित्र मानने लगा हूँ; क्योंकि अब मुझे दूसरों की दृष्टि से अपने को देखने की समझ आ गयी है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मित्र ढाल होता है – – –
सुख में पीछे,
दु:ख (युद्ध) में आगे।
आइने के सौ टुकड़े करके मैंने देखे हैं।
एक में भी अकेला था, सौ में भी अकेला।
मुनि श्री महासागर जी
आलोचन से
लोचन खुलते हैं ;
स्वागत करें।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
संस्कार देने की चीज़ नहीं, जगाये जाते हैं ।
उन्हें बनाये रखने के लिये, सुसंगति दी जाती है ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
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