संस्कार देने की चीज़ नहीं, जगाये जाते हैं ।
उन्हें बनाये रखने के लिये, सुसंगति दी जाती है ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

क्या इतने सालों में हम राजनीति/ धर्मादि के क्षेत्रों में पूर्वाग्रह की बेड़ियां तोड़ पाये हैं ?
अपनी मान्यताओं को मानने की मनाही नहीं है पर विपक्ष से द्वेष/घ्रणा करने की स्वतन्त्रता कैसे लेली ?

चिंतन

धर्म: स्वमुखी/आत्ममुखी, निश्चय, परमार्थ में जीना सिखाता है।

नीति: प्राणमुखी, व्यवहार, संसार में जीना सिखाती है।

मुनि श्री सुधासागर जी

किसी वस्तु पर ध्यान केंद्रित करना….

तो क्या अच्छी, बुरी किसी भी वस्तु पर ध्यान लगा सकते हैं ?

जब बच्चा होने वाला होता है, तब सुंदर और स्वस्थ बच्चे का फ़ोटो क्यों लगाते हो? बीमार और कुरूप बच्चे का लगालो!

इसीलिये ध्यान भगवान, गुरु या अपने शुद्ध आत्म स्वरूप पर लगाया जाता है, अशुद्ध चीज़ों पर नहीं; वरना अशुद्ध बनोगे।

चिंतन

पेट लैटर-बौक्स नहीं है, कि पोस्टकार्ड, लिफ़ाफ़े कुछ भी डालते रहो; जब मर्ज़ी आये तब, कितने भी डालते रहो।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

बुद्धि में तर्क होता है; पक्ष/विपक्ष, एक तरफ़ झुकाव। समझदारी निष्पक्ष होती है; अनुभव तथा विशुद्धि से आती है।

एक ज़िगज़ैग पाइप में केबॅल डालना था। बुद्धिमान लोगों की समझ में नहीं आ रहा था। एक गड़रिये ने चूहे की दुम में डोरी बाँध कर पाइप में छोड़ दिया। बस, उस डोरी से केबॅल को बाँधकर खींच लिया।

इसे कहते हैं समझदारी!

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

अवस्थाएं….
1. सुप्त – सुधबुध नहीं रहना। ज़्यादातर लोग इसी अवस्था के होते हैं।
2. स्वप्न – नयी दुनिया की रचना।
3. जाग्रत – जीवन का यथार्थ पता लग जाता है।
4. प्रबुद्ध – कल्याण के लिये प्रयत्नरत।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

अंकुर बड़े-बड़े तूफानों में भी नहीं हिलता क्योंकि जमीन से जुड़ा रहता है।
बड़े-बड़े वृक्ष छोटे-छोटे तूफानों में हिल जाते हैं/गिर जाते हैं क्योंकि वे अपने सिर जमीन से ज्यादा ऊपर उठा कर खड़े रहते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

लोभ = किसी वस्तु को पाने की तीव्र इच्छा।

चीजें भाएं, तो बुराई नहीं, पर वे चीजें लुभायें नहीं। जैसे किसी का सुंदर मोबाइल देखकर अच्छा लगे, बुरा नहीं; पर उसके प्रति मन लुभाये नहीं।

न लुभाना स्वाश्रित है।

मुनि श्री प्रणम्यसागर जी

ज़रूरी नहीं कि धर्मी आचरणवान हो ही। हरी बत्ती पर गाड़ी चलाए, धर्मी; लाल पर रोके, आचरणवान। आप धर्मी हों, तो पाप करना छोड़ दें; पापी हों, तो धर्म करना शुरु कर दें।

धर्म-भावना आचरण में प्रवृत्ति करेगी ही। दीपक जले और अंधकार न भागे, सम्भव ही नहीं! कम से कम संतुष्टि, प्रसन्नता, निराकुलता, सात्विकता, और प्रवृत्तियों में शालीनता आना तुरंत शुरू हो जायेंगी।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

बच्चों को बड़ों से शिकायत रहती है। होनी भी चाहिये; तभी तो बड़े बच्चों से शिकायत कर सकेंगे।

पहले राजा तक अपने बच्चों को सुविधाओं से दूर गुरुकुलों में भेज देते थे। तब बच्चे मन ही मन शिकायत तो करते होंगे; पर संस्कार दृढ़ हो जाते थे।

आज संस्कारों के स्थान पर सुविधाओं का ध्यान रखा जाता है। पहले नींव मज़बूत होती थी। पूर्वभव के संस्कार भी महत्त्व रखते हैं।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

बच्चों को पिता की सम्पत्ति पर दृष्टि नहीं रखनी चाहिये। वे दें, तो सहेजा जैसी मात्रा में लें, जिससे आप अपना ख़ुद का दही जमा सकें।
पिता की पुण्य की कमाई के सहेजे से दही रूप सम्पत्ति भी पुण्य रूप हो जायेगी।
पिता की सम्पत्ति को भोगों में न लगायें। पिता पूज्य हैं, अतः सम्पत्ति को पुण्य कार्यों में लगायें।
चक्रवर्तियों के बेटे भी उनकी अपार सम्पत्ति को नहीं भोगते; सहेजे के बराबर लेते हैं ।

मुनि श्री सुधासागर जी

छोटे बच्चे को सामान लेने 500 रुपये दिये।
बच्चे ने कहा कि मैं अपने लिये टॉफी भी ले आऊँ ?
ले आना।
दुकान पर पहुँच कर सामान का नाम भूल गया, 500 रुपये की टॉफी ले आया।

हम सब मनुष्य पर्याय में जो लेने आये थे वह तो भूल गये, पूरा जीवन विषय-भोग रूपी टॉफी में लगा दिया ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

पड़ौसी के घर की आग बुझाने को महत्त्व दें।
इस परोपकार से अपना भी भला – अपना घर बचेगा।
दो रोटी में से आधी रोटी भिखारी को देकर डेढ़ रोटी खाना। भिखारी की दुआ मिलेगी। चोर-डाकू तक अपने माल में से ग़रीबों को बांटकर खाते हैं।

मुनि श्री सुधासागर जी

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