1. आंखें न मूदो!
2. न ही दिखाओ!
3. सही क्या, देखो!
आचार्य श्री विद्यासागर जी
1. स्वयं के प्रति
2. स्वजनों के प्रति
3. प्रकृति/ समाज के प्रति
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
“समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता”
यह नीति है, सिद्धांत नहीं क्योंकि सिद्धांत तो सब पर लागू होता है, यदि सिद्धांत होता तो कोई मोक्ष नहीं जा पाता !
जबकि नीति अधिकांश पर लागू होती है।
मुनि श्री सुधासागर जी
महर्षि पराशर नाव से नदी पार कर रहे थे।
सुन्दर युवती अकेले नाव खे रही थी।
महर्षि के मन में विकार आ गया, युवती से निवेदन भी कर दिया।
युवती – सूरज देख रहा है।
महर्षि ने अपने प्रताप से सूरज को बादलों से ढ़क दिया।
युवती – जिस प्रताप से सूरज को ढक दिया उससे अपने विकारों को क्यों नहीं ढ़क पाये ?
महिर्षि ने उस युवती को अपना गुरु मान लिया।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
लम्बी बीमारी/दवाईयों का लम्बा प्रयोग भी आदत बन जाती है।
ऐसे ही लम्बे समय तक विभाव में रहने से हम उसे अपना स्वभाव मानने लगते हैं।
मुनि श्री सुधासागर जी
सुंदरता प्रकृति की देन है, सूखे पत्ते तक को खाद बना देती है।
उसको उजाड़ता मनुष्य ही है,
देवता उजाड़ते नहीं, नारकी उजाड़ सकते नहीं, पशु थोड़ा खाते हैं वह भी प्रकृति को बढ़ाने में सहायक होता है।
मुनि श्री सुधासागर जी
कौरवों के हारने का महत्त्वपूर्ण कारण – जो ब्रम्हास्त्र कर्ण ने मुख्य योद्धा अर्जुन के लिये रखा था, उसे घटोत्कच पर प्रयोग करने में बर्बाद कर दिया।
यदि हम भी गुरु/भगवान की महान शक्त्तियों को छोटी-छोटी समस्याओं में प्रयोग कर लेंगे तो बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान कौन करेगा !
मुनि श्री सुधासागर जी
बंद आँख में अंधेरा सुहाना लगने लगता है,
आँख खुलने पर पता लगता है कि क्या-क्या खोया !
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
संसार/मिथ्यादर्शन का Test – मंदिर जा जाकर/धार्मिक क्रियायें करते-करते बोर होना/थकना/ऊबना।
धार्मिक क्रियाओं से सम्यग्दृष्टि का आनंद/उत्साह बढ़ता है।
मुनि श्री सुधासागर जी
हाथी लाख का, मरे तो सवा लाख का;
मनुष्य नाक का, मरे तो ख़ाक का;
पर मानता है अपने को लाखों का।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
दिन का हो या रात का, सपना सपना होय;
सपना अपना सा लगे, किन्तु न अपना होय।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
दिन के सपने मोह की नींद से,
रात के सपने शरीर की नींद से आते हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
साधु और पापी दोनों में ही संतोष दिखता/होता है।
बस दोनों की मंज़िलें विपरीत दिशा में होतीं हैं।
शकुनि ने अपनी बहन के साथ हुये अन्याय का बदला लेने के लिए कितने लम्बे समय तक संतोष रखा!
बहन/ जीजा को बदला लेने के लिये मना नहीं पाया तो भांजों के बड़े होने का इंंतजार करता रहा।
मुनि श्री सुधासागर जी
गन्ना पुराना, रस कम, निकालने में मेहनत ज्यादा, सो रस की कीमत भी ज्यादा।
वृद्धावस्था कबाड़े की चीज़ नहीं, Antique है/ कीमती है।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
(पुराने वर्षों से अनुभव ग्रहण कर उन्हें वृद्धावस्था की तरह कीमती बनायें)
ईर्ष्या क्यों ?
ईर्ष्या तो बड़ों से होती है,
मैं छोटा क्यों बनूँ !
आचार्य श्री विद्यासागर जी
जिन्होंने अपनी आत्मा को कमज़ोर/आत्मविश्वास कम कर लिया है, वे आत्मा को स्त्रीलिंग से संबोधित करते हैं;
मजबूती वाले पुल्लिंग से।
चिंतन
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