जिन्होंने अपनी आत्मा को कमज़ोर/आत्मविश्वास कम कर लिया है, वे आत्मा को स्त्रीलिंग से संबोधित करते हैं;
मजबूती वाले पुल्लिंग से।
चिंतन
दूसरों के यहाँ कुछ भी अच्छा/बुरा हो, हम कहते हैं – दूसरों के फटे में मैं क्यों पैर डालूँ।
पर कर्म भी तो दूसरे हैं, उसमें(कर्मफल में) इतना Involvement क्यों ?
जबकि देख रहे हो कि कर्मों के फटे (कर्म फटने/ फलित होने पर) में पैर डालने के नतीजे बुरे ही होते हैं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
1922-23 में आचार्य श्री शांतिसागर जी दक्षिण से उत्तर की ओर आ रहे थे।
लोगों ने उत्तर की कठिनाइयों के लिये निवेदन किया कि आप संकट निवारण के लिये कोई मंत्र सिद्ध कर लें।
आचार्य श्री…जिसे लोग णमोकार में जपते हैं उसका तो जीवन ही मंत्र है।
आचार्य श्री हैदराबाद पहुँचे तो वहाँ के निज़ाम अपनी बेगमों के साथ आगवानी करने पहुँचे;
कट्टरपंथियों ने टिप्पणियाँ कीं।
निज़ाम का जबाब था…इस राज्य में नंगों पर प्रतिबंध है, फ़रिश्तों के लिये नहीं।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
प्राय: बेटे की कामना करते हैं पर केरल में बेटी की (गाय/भैंस के बछ्ड़ी की)
वास्तविकता यह है कि न हमको बेटे से मतलब है न बेटी से, हमें अपने स्वार्थ से मतलब है, बुढ़ापे में हमारी देखभाल जो करे, वह हमें प्रिय है।
मुनि श्री सुधासागर जी
संस्कृति बनाये रखने में समीचीन साहित्य की प्रमुख भूमिका होती है। परन्तु वह साहित्य जीव के लिये उपयोगी होना चाहिये, उसके उपयोग से ही संस्कृति का निर्माण होता है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
लौकिक शिक्षा का अंत नहीं,
धार्मिक शिक्षा से बहुत कम में बहुत काम हो जाता है; इसे रटना नहीं पड़ता, सिर्फ समझना होता है ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
कर्म किया तो फल मिलेगा।
सेवक ने नहलाया तो सेवक को रोटी मिलेगी।
सेठ को नहलाया तो बची रोटी, भगवान को तो पहली रोटी, चुपड़ी, इज्ज़त के साथ।
यही सिद्धांत अन्य में भी लगा लेना – भोजन की थाली सजाई या पूजा की !!
मुनि श्री सुधासागर जी
ज्यादा ऊंचाई पर बादल कम गतिशील होते हैं, नीचे वाले ज्यादा दौड़ते दिखते हैं।
यही सिद्धांत मनुष्यों में भी लगा लेना।
चिंतन
समर्पण यानि अपने को आराध्य के लिये मिटा देना।
मिटाना यानि अपने मन को आराध्य के अनुसार चलाना।
गुरुवर मुनि श्री क्षमासागर जी
हे ! दीमको, शास्त्रों को खा-खा कर अपने नाम/दाम की भूख मत मिटाओ, संस्कार/संस्कृति बनाने में ज्ञान का उपयोग/प्रभावना करो ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
गुरु, रेडिओ की तरह Connection कराके शिष्यों को चलने योग्य बना देते हैं।
Fine Adjustment तो शिष्यों को खुद ही करना होता है (भावों में सुधार लाकर)।
तभी बाहर की आवाजें आना बंद हो पाती हैं।
मौसम (माहौल) बदलने पर विविध-भारती की जगह सीलौन आने लगता है, सो समय-समय पर सम्भाल करते रहना होता है।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
मंदिर से लौटते समय दूरी पर सत्संगी बहन दिखायी दीं ।
समझ नहीं पा रहा था कि वे मंदिर की ओर आ रही हैं या मंदिर से दूर जा रहीं है !
सही निर्णय किसी के पास आने पर ही होता है ।
चिंतन
नियतिवाद जीवन के अंतिम दिनों में चलेगा।
लेकिन पहले आ गया तो समझना, जीवन का अंत आ गया।
मुनि श्री सुधासागर जी
पूजा खड़े*(अवस्था वाले) की होती है, लेटे/मरे की नहीं।
* Alert/ पुरुषार्थी
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