करुणा करने वाला अहं का पोषक भले ही ना बने, परन्तु स्वंय को गुरू अवश्य समझने लगता है तथा लेने वाले को शिष्य । सुख मिलने का द्वार तो खुलता है तथा देने वाला बहिर्मुखी भी होता है, और ऊर्ध्वगामी होने का कोई नियम नहीं है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी ( मूकमाटी )
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