यदि पहले तीनों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम) धर्मानुसार हैं तो मोक्ष-पुरुषार्थ तो होगा ही ।

आचार्य श्री विद्यासागर जी

कुत्ते की पूँछ सीधी करने का तरीका –
कुत्ते को बेस्वाद/कम भोजन दो (कमजोर हो जायेगा, पूँछ लटक जायेगी ) ।
मन/ विकारों को नियंत्रित करने का भी यही तरीका है ।

ना तो रात्रि में कुल्ला करें और ना ही बिना कुल्ला करे मंदिर में बोल कर अर्घ चढ़ायें (दुर्गंध न फैलायें)

मुनि श्री सुधासागर जी

विचार का चूहा,
मन के पटल पर,
उभरना चाहे,
बिल से झाँके,

ध्यान की बिल्ली,
निश्चल पाषाणवत्,
दृष्टि बिल पर केंद्रित,
ताक में बैठी,
घात लगाए,

चूहा डरे,
वापस बिल में,
घुस जाए,
विचार शृंखला,
बनने से पहले,
टूट जाए,

बिल्ली बैठी रहे,
यथावत् समाधिस्थ ।

कमल कांत जैसवाल – चिंतन

ज़िन्दगी का यह एक बहुत बड़ा रहस्य है…
हम जानते हैं कि हम किसके लिए जी रहे हैं,
लेकिन
ये कभी नहीं जान पाते कि हमारे लिए कौन जी रहा है !

(सुरेश)

श्रद्धा – मेरा डॉक्टर/धर्म ठीक कर देगा,
अनुभव – मेरा डॉक्टर/धर्म ही ठीक कर पायेगा ।
यदाकदा(जब बीमारी असाध्य/पापोदय तीव्र हो) ठीक ना हो पायें तब भी श्रद्धा कम नहीं होनी चाहिये ।

महामारी की वज़ह से मंदिर बंद/ पूजादि कर नहीं पारहे हैं ।
लेकिन TV पर देखकर continue रक्खें, कहीं आदत ही न छूट जाय ।
बरसात न होने पर भी किसान सूखे में भी हल चलाते रहते हैं ताकि खुद तथा बैलों को आदत बनी रहे/ प्रमादी न हो जायें ।

मुनि श्री सुधा सागर जी

ब्रम्हचर्य >> ब्रम्ह = आत्मा + चर = आचरण/ रमण ।

1) चाम…सारहीन/ चाम पर दृष्टि से काम उत्पन्न ।
यह तन पाय महा तप कीजै, यामें सार यही है ।
2) काम…जब तक प्राप्त नहीं, आकुलता; प्राप्त होने पर, अतृप्ति; अंत में, दुःख/ पीड़ा/ पश्चाताप/ छोड़ना कठिन ।
3) राम…आत्म/आध्यात्म दृष्टि से पवित्रता/ धाम की प्राप्ति ।
4) धाम…पाने के उपाय ..
संस्कारों को महत्व;
गृहस्थों को ब्रह्मचर्याणुव्रत;
आत्मा/ परमात्मा, अशुचि(शरीर की अपवित्रा) भावना का चिंतन;
संकल्प;
लक्ष्मण रेखा का निर्धारण;
नित्य अच्छा सुनें/ पढ़ें;
नियमित खुराक न मिलने से तन सुस्त पर मन तो भ्रष्ट;
मौन रक्खें ।

मुनि श्री प्रमाणसागर जी

त्याग के बाद त्याग के ममत्व का त्याग …आकिंचन्य धर्म है ।

झगड़ा….मेरा, तेरा, ये मेरा ये तेरा;
समाधान ..न मेरा, न तेरा, जग चिड़िया रैन बसेरा ।

जानो मेरा क्या है !
शरीर, सम्पत्ति, सम्बंधी ?
तेरे नहीं, तेरे पास हैं/ सब यहीं छूटने वाले हैं/
संयोग और स्वार्थ के हैं/ कर्माधीन हैं ।
मात्र आत्मा तेरी है, अपने स्वरूप को पहचानो/
सारी यात्रा एकाकी है ।

मालिक नहीं, संरक्षक बनो/ संभाल करो ।
रूख़े नहीं, सरस/ सजग रहो ।
अनाथ नहीं, सनाथ बनो ।
उपभोग कम, उपयोग करो ।

मुनि श्री प्रमाण सागर जी

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