धन में आनंद नहीं, धनी होने में है ।
ज्ञान में आनंद नहीं, ज्ञानी होने में है ।
जीवन को सुचारु रूप से चलाने/ सफ़ल बनाने…
1. क्रम से कार्य करना ।
2. ऐसे कार्य करना जिससे आगे का क्रम बन जाये ।
संसार भ्रमण का कार्यक्रम हमने खुद बनाया है,
खुद भोग रहे हैं,
खुद ही देख रहे हैं ।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
(Manju)
हवा झंड़े को लहरा तो देती है, पर उसको उखाड़ नहीं पाती ।
ऐसे ही कर्म जीव को हिला तो सकते हैं, उखाड़ नहीं सकते ।
“अगरबत्ती” अपने सहारे जलती है, इसलिये महकती है, फूँक मारने से भी बुझती नहीं है (और ज्यादा जलने लगती है),
जबकि “दिया”, घी/बाती/मिट्टी के सहारे, फूंक मारो तो अंधकार ।
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
नियति यानि योग्यता ।
आचार्य अकलंक देव स्वामी ने लिखा है – जिस कारण से जो कार्य होना है/हो सकता है, उसी से वह कार्य होता है ।
जैसे आँख की नियति देखना है, सुनना नहीं ।
मुनि श्री सुधासागर जी
स्व-नियंत्रण की पूर्णता ही मोक्ष है ।
नियंत्रण हो निज पै, दीप बुझे स्व सांस से (अनियंत्रण से) ।
आचार्य श्री विद्यासागर ञजी
अप्पा यानि आत्मा ।
अप्पा से “आप” बना है ।
कहते हैं ना ! … “आप कैसे हैं ?”
यानि आपकी आत्मा कैसी है !
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी
कड़क सर्दी में आचार्य श्री विद्यासागर जी के शरीर में कांटे उठ रहे थे, भक्त के इंगित करने पर आ. श्री ने कहा –
शरीर का स्वभाव ही कांंटों वाला है, इसमें फूल थोड़े ही ना खिलेंगे !
शरीर को जानने से नहीं, बल्कि उसके स्वभाव को जानने से वैराग्य होता है ।
आचार्य श्री विद्यासागर जी
एक घड़ा तैरता हुआ दूसरे घड़े के पास आने लगा तो दूसरा घबराया ।
क्यों ? हम तो एक ही जाति के हैं ?
जब ज्यादा करीब आ जाओगे तब दोनों टूटेंगे ।
दान में वस्तु के प्रति आदर भाव होता है, संसार अच्छा चलता है ।
त्याग में ना आदर होता है ना हेयता, संसार घटता है ।
मुनि श्री सुधासागर जी
कमाई कितनी करें ?
उतनी, जिससे अपनी जरूरतों तथा जरूरतमंदों की जरूरतों को पूरा कर सकें;
(पर घमंड़ ना आने लगे/पापाचार का मन ना होने लगे)
मुनि श्री प्रमाणसागर जी
मालिक ने कर्मचारी को मारा, कर्मचारी ने घर पहुँच कर बच्चे को, बच्चे ने कुत्ते को मारकर घर से निकाल दिया, कुत्ते ने राहगीर को काट लिया ।
वह राहगीर और कोई नहीं पहले वाला मालिक था ।
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